“बैरगिया नाला जुलुम जोर” एक पुरानी कविता है जो भारत के दूसरे दर्जे के नागरिकों के तीर्थस्थलों को पर्यटन स्थल बनाए जाने के दौर में फिर से प्रासंगिक हो जाती है! Small Talk में एक चर्चा इस बात पर कि आखिर क्यों हिन्दू तीर्थ स्थलों को नही बनने देना चाहिए पर्यटन स्थल
बैरगिया नाला जुलुम जोर।
तहं साधु भेष में रहत चोर।
बैरागिया से कछु दूर जाय।
एक ठग बैठा धूनी रमाय।
कछु रहत दुष्ट नाले के पास।
कछु किए रहत नाले में वास।
सो साधु रूप हरिनाम लेत।
निज साथिन को संकेत देत।
जब जानत एहिके पास दाम।
तब दामोदर को लेत नाम।
जब बोलत एक ठग वासुदेव।
तेहिं बांस मार सब छीन लेव।
लगि जात पथिक नाले की की राह।
पहिलो ठग बैठेहिं डगर माह।
सबु देहु बटोरी धन थमाय।
नहिं तो होइ जाई बुरा हाल।
हम मालिक तुमसे कहें सांच।
है काम हमारो गान नाच।
नाचै गावै का कार बार।
तबला तम्बूरा धन हमार।
ठग बोले नाचो गावो गान।
हम खुशी होवै तब देहि जान।
चट नाच गान तहं होन लाग।
ठग भए मस्त सुन मधुर राग।
एक चतुर पथिक मन भए सोच।
हम नवजन हैं ये तीन चोर।
बैरगिया नाला जुलुम जोर।
नव पथिक नचावत तीन चोर।
अस सोचत मन उपजी गलानि।
तब लागे गावै समय जानि।
जब तबला बाजे धीन-धीन।
तब एक-एक पर तीन-तीन।
दीनी सबकी ठगही भुलाय।
सुख सोवै अपने गांव जाय।
आज जार्ज पंचम सुराज।
नहिं ठग चोरन को रह्यो राज
छंटि गए दुष्ट हटि गए चोर।
पटगा बैरगिया अजब शोर।।
Always a fan Sir. Beautiful narration
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