चुनावी दौर में भी बिहार की जिन समस्याओं की बात नहीं होती, उनमें से एक है #पलायन। बात क्यों नहीं होती, इसका एक बड़ा राजनैतिक कारण तो आपको बिहार के जातिगत जनगणना के आंकड़ों में ही दिख जायेगा। पलायन सबसे बड़ी समस्या सामान्य श्रेणी यानी जनरल कास्ट के लिए है और बिहार की राजद जैसी पार्टियों की नीति “भूरा बाल साफ करो” की रही है। जिन्होंने समस्या को बढ़ाने-फैलाने में हर संभव योगदान दिया हो, वो भला उसी समस्या के बारे में बोलकर अपना नुकसान क्यों करेगे? फिर जो वोट बैंक है, उस समुदाय के लिए तो ये समस्या छोटी लगती है, इसलिए भी उसपर चुप रह जाना सुविधाजनक है।
यहाँ लोग एक मामूली सी बात भूल जाना सुविधाजनक पाते हैं। होता क्या है कि 100 का दस प्रतिशत 10 होगा, लेकिन जनसँख्या अगर 200 है तो 5% में ही दस की गिनती तो पूरी हो जाएगी! यानी “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” वाला नियम यहाँ भी लागू हो जाता है। प्रतिशत में भले जनरल कास्ट की समस्या दिख रही हो, लेकिन वास्तविक गिनती के आधार पर देखेंगे तो तथाकथित बहुजन समुदाय की आबादी भी पलायन की कम शिकार नहीं है। इसपर ध्यान एक और कारण से कम जाता है। असल में बिहार से पलायन इतने लम्बे समय से जारी है कि लोगों ने उसे ही नियति मान लिया है। इस वजह से भी चुनावों के समय पलायन की चर्चा कम होती है।
लोगों को केवल रोजगार के लिए #बिहार से भागना पड़ता होगा, ऐसा सोच रहे हैं तो आप गलत सोच रहे हैं। बिहारी पलायन के लिए करीब 11-12 वर्ष की आयु में मानसिक रूप से तैयार होने लगता है और 15 का होते-होते वास्तविक पलायन शुरू हो जाता है। इस पंद्रह वर्ष की आयु वाले पलायन के लिए बीते कम से कम 10-20 वर्षों में तो भाजपा द्वारा चुनकर बिठाये हुए राज्यपाल सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। पूरे बिहार में 30 से अधिक विश्वविद्यालय तो हैं ही, जिसमें 20 राज्य सरकार के, 7 निजी और 4 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं। इनके मुखिया राज्यपाल होते हैं और इनमें से लगभग सभी में “सेशन लेट” है। बिहार की किसी यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट होने में तीन नहीं पांच या उससे अधिक वर्षों का समय लगेगा। तो दसवीं पास करते ही 15-16 की आयु में पलायन शुरू होता है।
बिहार के बाहर रहने वाले (विशेषकर भाजपा समर्थक) इस बात पर बिलबिला कर कहेंगे कि यूनिवर्सिटी तो तुम्हारी ही है, बिहार के लोग इन्हें स्वयं ठीक क्यों नहीं करते? उन मासूमों को बता दें कि बिहार में डोमिसाइल वाला नियम बहुत कम जगहों पर लागू है। बिहार के बाहर के शिक्षक आराम से आकर यहाँ के स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाते हैं। महाराष्ट्र या देश के अन्य सभी राज्यों में जैसे बाहर से गए, विशेषकर बिहार के परीक्षार्थियों या नौकरी के उम्मीदवारों को मार-पीटकर भगाते हैं, या हत्या कर देते हैं, वैसा बिहार के लोग नहीं करते। यानी विश्वविद्यालय बिहार में है टी बिहारियों का ही है, ऐसा नही कहा जा सकता। इसके अलावा इन विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी है। तो तीन के बदले पांच-सात वर्ष में ग्रेजुएट हो भी गए तो छात्र-छात्रा ने पढ़ा कुछ भी नही है।
एक तो तीन के बदले कई वर्ष गंवाकर निकले, जिसका कारण पूछे जाने पर कोई उचित उत्तर वो जॉब इंटरव्यू में दे नहीं पायेगा, ऊपर से बेचारों ने कुछ पढ़ा भी नहीं है तो निजी-सरकारी किसी जॉब के लायक वो बचा ही नही। इसलिए बच्चे को 15 का होते ही लतियाकर घर से भगा दिया जाता है। जी हाँ, लतियाकर ही भगाया जाता है, क्योकि आपको भी पता है कि शौक से कोई नही जाता! शौक से जाते तो लड़कियों के ससुराल विदा होने पर हृदयविदारक गीत-साहित्य रचा जाता क्या? शौक से गए होते तो छठ का समय आते ही ट्रेनों की कमी के बहाने भाग्य से लेकर केंद्र और राज्य दोनों की सरकार तक को कोसते बिहारी क्यों दिखते भला? वही बैठकर कहीं मना लो छठ!
ये पंद्रह-सोलह वर्ष का बच्चा जब घर से गया, तो ये वापस नहीं लौटेगा। सौ में से कोई दो-चार के उदाहरण देकर बहलाइए मत, आपको पता है कि नही लौटेगा। क्यों नही लौटेगा? क्योंकि जहाँ वो गया है, वहाँ की उसे आदत पड़ जाएगी, लेकिन ये कम महत्वपूर्ण कारण है। अगर बाहर वो ठीक-ठाक कमा रहा है, तो उसकी अपेक्षाएँ भी वैसी ही हो चुकी हैं। वो किसी घटिया सी सोसाइटी में नहीं रहना चाहता, उसे आस पड़ोस में अपने ही स्तर के लोग चाहिए। उसे मोहल्ले-शहर में एक स्तर की साफ-सफाई, एक स्तर की सड़कें देखने की आदत है। अपने बच्चों के लिए उसे ढंग के स्कूल चाहिए, पति-पत्नी दोनों काम करते हों तो बच्चे को दिनभर छोड़ने के लिए क्रेच चाहिए। पार्क, पब्लिक ट्रांसपोर्ट, एंटरटेनमेंट जैसी जो चीजें उसे दिल्ली/कोलकाता/बंगलुरु में उपलब्ध थी, उसे छोड़कर वो कबाड़ में क्यों आना चाहेगा? अपने ही माता-पिता की तरह अपने बच्चों को 15 का होते ही लतिया कर राज्य से बाहर भगाने का शौक है क्या?
पलायन जो बिहार से पहले होता था, वो ऐसा परमानेंट नहीं था। उस पलायन का राज्य को भी फायदा होता था। बाहर जाते ही लोग बेस्ट प्रैक्टिसेज सीख जाते और वापस लाकर बिहार में उस ज्ञान का प्रयोग शुरू कर देते। कृषि में आज जो अलग तरीके से धान बोया जाता है, वो पिछले बीस वर्षों में इसी तरह बदला है। लोग हरियाणा-पंजाब के खेतों में मजदूरी करने गए, सीखकर छुट्टियों में लौटे तो घर पर रहने वाली पत्नी को बता गए कि वहाँ तो ऐसे होता है। गाँव पर खेत देखती पत्नी जी ने सुने हुए को प्रैक्टिकल करके देखना शुरू किया और खेती का तरीका बदल गया। किसी भाजपा, जदयू, या राजद वाले कृषि मंत्री का इसमें धेले भर का योगदान नहीं। कृषि सम्बंधित विभागों और सरकारी आईएएस अफसरों का योगदान तो उससे भी कम है।
इसकी तुलना में जब पढ़ाई के लिए निकले लोगों का वापस न आना, पलायन का स्थायी हो जाना हम देखते हैं तो समझ आता है कि सबसे पहले कौन गया होगा?जो पढ़ाई में सबसे अच्छे रहे होंगे, सबसे ज्यादा आईक्यू वाले निकल गए। नब्बे के दशक से ये चलता रहे तो क्या होगा? पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे लोगों के जाते जाने का मतलब है रस सारा निचुड़ चुका अब सिट्ठी बची है। गन्ने का रस निकालते समय आपने देखा है, रस निचोड़ने के बाद जो निकाल कर फेंकते हैं, वो न्यूनतम उपयोग वाली चीज सिट्ठी कहलाती है। बिहार का पलायन केवल रोजगार का मुद्दा नहीं, बल्कि एक सामाजिक-राजनीतिक त्रासदी है, जो राज्य के भविष्य को निचोड़कर उसे “सिट्ठी” (गन्ने का छिलका) बना रही है। जब तक शिक्षा, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं में सुधार नहीं होगा, तब तक युवाओं का पलायन रुकेगा नहीं। और इसके लिए केवल समग्र नीतियों की नही, सम्पुर्ण क्रांति की जरूरत है।