सावरकर का बीजसावरकर का बीज

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर को लेकर कुछ साल पहले जब विवाद उठा तो एक दलील ये भी दी गई कि भले ही वो पाकिस्तान के संस्थापक थे मगर ये नहीं भूलना चाहिए कि भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद करवाने में उनका भी योगदान था। मतलब संवेदनशीलता और उदारता का आलम ये है कि जिस शख्स की टू नेशन थ्योरी ने देश के दो टुकड़े कर दिए फिर भी कुछ लोग ये भूलने को तैयार नहीं कि देश की आज़ादी में उनका भी योगदान था और इसके लिए उन्हें मान्यता मिलनी चाहिए। मगर वहीं जब देश की आजादी में सावरकर के मूल्यांकन की बात आती है तो उनके सारे जीवन को ये कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है कि उन्होंने तो अंगेजों से माफी मांगी थी…उसके अलावा सावरकर ने क्या किया, वो कौन थे, क्या थे, हमें कोई खबर नहीं।

अरे भाई, माफी तो नाभा जेल जाने पर नेहरू ने भी अंग्रेजों से मांगी थी। सावरकर तो फिर भी देश की सबसे खतरनाक जेल में बंद थे। जहां उनकी मौत तय थी। मगर नेहरू जी के ऊपर तो ऐसा कोई खतरा नहीं था। वो तो सिर्फ 3 दिन के अंदर अपने पिता से वायसराय को सिफारिश लगवाकर माफी मांग जेल से बाहर आ गए। सावरकर तो अंडमान के जेल में दस साल रहे, नेहरू जी तो कुछ घंटे में ही बाहर आ गए। ऐसे माफी मांगने पर जब उनकी महानता पर कोई असर नहीं पड़ा। वो देश के पीएम बने। भारत रत्न हुए, तो सावरकर की पूरी शख्सियत को ही उनकी माफी क्यों बना दिया गया।

अगर कोई शख्स देश की खातिर फांसी पर लटक जाए तो ये उसकी महानता है और उस महानता के लिए उसका सम्मान भी होना चाहिए मगर ऐसी ही स्थितियों में दूसरा कोई शख्स जैसे-तैसे खुद को बचाकर देश के लिए ही कुछ करना चाहता है, तो वो अपराधी और डरपोक कैसे हो गया? आखिर दोनों का मकसद तो एक ही है। बस फैसला अलग है।

अगर सावरकर को लगा कि यूं ही मर जाने से अच्छा है कि जैसे-तैसे करके यहां से बाहर आओ फिर देख जाएगा कि आगे क्या करना है, तो इसमें क्या अनैतिक हो गया। वो माफी किसी कायरता वश नहीं बल्कि लड़ाई में जैसे-तैसे बने रहने की रणनीति का हिस्सा था। मगर आखिर में उनका लक्ष्य भी वही था जो गांधी जी का था, जो भगत सिंह का था, जो नेहरू का था। गांधी जी लंदन में पहली बार सावरकर से मिले तो उनके व्यक्तित्व के प्रशंसक हो गए। उन्होंने एक से ज्यादा मौकों पर सावरकर को सच्चा देश भक्त भी कहा। उनकी मौत के बाद इंदिरा जी ने उनकी याद में डाक टिकट भी जारी किया। नेहरू की मौत के बाद उन्हें पेंशन भी दी गई। मगर राहुल गांधी मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि मैं सावरकर नहीं हूं, माफी नहीं मांगूंगा। मतलब जो लोग खुद अपनी पार्टी का अतीत नहीं जानते वो लोग सावरकर के अतीत पर टिप्पणी कर उन्हें सर्टिफिकेट बांट रहे हैं।

किसी भी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि वो उन लोगों को गुनहगार मान कर उनका मज़ाक बनाने लगे जिनका उसे सम्मान करना चाहिए था। और यही अपराध सालों तक सावरकर को लेकर एक वर्ग करता आया है। ये वो वर्ग है जो औरंगजेव की क्रूरता का वर्णन करते हुए हिचकिचाता है और सावरकर ने जो किया उसे स्वीकार करने से मना करता है। सावरकर इसलिए बुरे नहीं थे क्योंकि उन्होंने माफी मांगी वो इसलिए बुरे थे कि उन्होंने हिंदुत्व का विचार दिया। फिर उस विचार की सजा के तौर पर उनकी माफियों को ही उनकी पूरी शख्सियत बना दिया गया। एक कवि सावरकर, लेखक सावरकर, चिंतक सावरकर, क्रांतिकारी सावरकर, नेता सावरकर सब दफन कर दिए गए और उनकी वो 6 माफियां खूंटी पर टांग दी गईं । मैक्सिकन कहावत है, जिन्होंने मुझे दफनाने की कोशिश की वो नहीं जानते थे मैं बीज हूं फिर से उग आऊंगा। और ये बताने की शायद जरूरत नहीं कि सावरकर का बीज दफन है या फिर से उग आया है।
———-

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *