1. सलाह देना और खुद चुनाव लड़ना — दोनों अलग बातें हैं
प्रशांत किशोर चुनाव में कामयाब नही हो पायेंगे क्योंकि सलाह देना किसी पार्टी को और खुद पार्टी बनाकर चुनाव लड़ना दो अलग अलग बातें हैं।
बात करें अगर जन सुराज की तो — इस नई पार्टी में ही कलह का बिगुल बज चुका है।
बहुत सारे नेता प्रशांत किशोर का साथ छोड़ रहें हैं। ऐसे में जब आपके साथी ही साथ छोड़ रहे हों, तो जनता प्रशांत पर कैसे भरोषा करेगी?
2. विवादित चेहरों की एंट्री — मनीष कश्यप का मामला
विवादित यूट्यूबर/पत्रकार का जन सुराज में शामिल होना भी जन सुराज को डेंट पहुचायेगा, क्योंकि मनीष कश्यप जिस प्रकार की अब तक पत्रकारिता करते रहे हैं —
उससे अभी तक कोई ठोस बदलाव देखने को नहीं मिला।
उन्होंने सरकारी अफसरों से सवाल ज़रूर किए, मगर जहाँ-तहाँ सरकारी काम में बाधा भी पहुँचाई।
उनकी पत्रकारिता में ड्रामा और नौटंकी ज़्यादा दिखी — और फिर गलत मुकदमों में जेल भी गये।
इसके बाद उन्होंने बीजेपी ज्वाइन किया, मगर वहाँ भी जब उनकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हुई, तो उन्होंने एक नाटकीय ढंग से PMCH में हंगामा किया।
उन्हें पता था कि इमरजेंसी सेवाएं PMCH में कैसी हैं — इसलिए किसी का इलाज कराने के बहाने वहाँ पहुँचे और ड्रामा शुरू कर दिया।
ना तो पार्टी के ऊँच पदस्थ लोगों से बात की और ना ही स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे से — सीधा लाइव हंगामा।
उनका मकसद सिर्फ ड्रामा करना था।
खैर, इस मुद्दे पर अगर आप चाहते हैं कि मैं और बोलूं तो आप अपनी बात कमेंट बॉक्स में रख सकते हैं।
मनीष कश्यप की पूरी लंपटई हम आपको बताएंगे।
फ़िलहाल बढ़ते हैं पॉइंट नंबर 3 की ओर…
3. पार्टी मॉडल — NGO या कॉर्पोरेट जैसी सोच?
प्रशांत किशोर राजनीतिक पार्टी को एक NGO या फिर एक कॉर्पोरेट कम्पनी की तरह चलाने की कोशिश कर रहे हैं।
जो भी व्यक्ति उनकी पार्टी से चुनाव लड़ना चाहता है, उसे ₹15,000 की धनराशि देनी होती है।
उसके बाद पार्टी तय करती है कि कौन बेहतर उम्मीदवार है।
अब ऐसे में जिनका सिलेक्शन नहीं होगा, वे पार्टी को छोड़ देंगे — और उल्टा विरोध में खड़े होने की प्रबल संभावना है।
4. जन संपर्क का सीमित दायरा
जन सुराज के फाउंडर प्रशांत किशोर ने भले ही पद यात्रा की हो, मगर उनका जन सम्पर्क या उनके कार्यकर्ता हर व्यक्ति से नहीं मिले।
उन्होंने उस क्षेत्र के कुछ प्रबुद्ध और बुद्धिजीवियों से संपर्क बनाकर उनके कंधों पर कमान दे डाली।
मगर इससे होगा क्या?
जो अन्य बुद्धिजीवी या प्रभावशाली लोग हैं, जिनकी पूछ नहीं हुई, वे भी संगठन के खिलाफ हो जाएंगे।
यानि PK के लिए अपने ही क्षेत्र में विरोध के बीज बो दिए गए हैं।
5. ‘पेंसिल पकड़ने वालों’ पर भरोसा?
नए लोगों पर बिहार की जनता क्या भरोसा कर पाएगी?
बचपन में हम गलतियाँ करते हैं तो हमें पेंसिल दी जाती है,
कुछ समय बाद कलम — ताकि गलती न करें।
अब आप ही बताइए — क्या पेंसिल पकड़े लोगों पर जनता भरोसा करेगी?
6. गांधी मैदान की फ्लॉप रैली — एक चेतावनी
गांधी मैदान में भीड़ का न जुट पाना, एक फ्लॉप रैली —
यह इस बात का बड़ा प्रमाण है कि प्रशांत किशोर के संगठन में दिक्कत है।
चतुर, चालाक और चपल लोगों की कमी है।
जिन लोगों को भीड़ जुटाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी, वे लोगों को लाने में फिसड्डी साबित हुए।
या तो उनमें दूरदर्शिता की कमी थी, या जमीनी पकड़ की।
कारण चाहे प्रशासन हो, या संगठन —
मगर गांधी मैदान में भीड़ न जुट पाना ये दर्शाता है कि वोट भी नहीं जुट पाएगा।
7. वोट बिखरने की संभावना — फायदा NDA को
अगर चिराग पासवान की पार्टी LJP (रामविलास) सभी सीटों पर चुनाव लड़ती है,
साथ ही आम आदमी पार्टी भी मैदान में आती है,
तो वोटों का बिखराव तय है।
जो लोग नए विकल्प को चुनेंगे, उनका वोट बंटेगा —
और इससे सीधा फायदा NDA और बीजेपी को होगा।
🧮 संभावित आंकड़ा — अगर आज चुनाव हो जाए
गठबंधन/पार्टी | संभावित सीटें |
---|---|
NDA | 60 – 80 |
INDIA | 100 – 130 |
जन सुराज | 20 – 35 |
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🔚 निष्कर्ष (अपडेटेड)
प्रशांत किशोर के सामने राजनीतिक संभावनाओं का समंदर है, मगर उसमें तैरना आसान नहीं है।
वे नीतियों और विचारधारा से लैस हैं, मगर संगठन, नेतृत्व और जनविश्वास का निर्माण अभी अधूरा है।
अगर वे इन चुनौतियों को पार कर जाते हैं, तो बिहार की राजनीति को नया चेहरा मिलेगा।
नहीं तो वे एक और असफल ‘राजनीतिक प्रयोग’ बनकर रह जाएंगे।
या फिर…
अगर वे ‘जीत नहीं पाए’, मगर सीटें इतनी ले आए कि सत्ता की चाबी उनके पास हो —
तो वे बन जाएंगे बिहार की राजनीति का ‘पोटैटो’ — यानी सत्ता का ज़रूरी स्वाद।