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भारत में धर्म के नाम पर राजनीति की बिसातें सजना कोई नयी बात नहीं। उसमें भी राजनीति की प्रयोगशाला कहलाने वाले बिहार की बात हो, तो मामला मंडल-कमंडल की राजनीति के इतिहास तक चला ही जाता है। वर्षों पहले लालू यादव ने आडवानी जी की रथ-यात्रा रुकवाकर अपना राजनैतिक रसूख दिखाया था। उनके सुपुत्रों और राजद ने अपनी डूबती नैया देखकर फिर से वैसा ही दांव चलने का प्रयास किया। पहले से राजद नेता रामचरितमानस का विरोध करते आ रहे थे, इस बार राजद के युवराज द्वय ने एक व्यक्ति धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री यानि बाबा बागेश्वर पर निशाना साधा। फ़िलहाल दाँव उल्टा पड़ा है, युवराज द्वय जमीन सूंघते नजर आते हैं!
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पटना के होटल पनाश के लिए एक विचित्र सी स्थिति उत्पन्न हो गयी है। बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर और कथावाचक धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री कुछ दिनों पहले 5 दिनों के बिहार दौरे पर थे। उनके कथावाचन का स्थल पटना मुख्य शहर से थोड़ा अलग, नौबतपुर में था, मगर वो ठहरे पटना के होटल पनाश में थे। कथावाचक धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री तो लौट गए हैं, मगर उनके भक्त अब भी होटल पनाश पहुंच रहे हैं। बाबा बागेश्वर जिस कमरे में रुके थे, श्रद्धालु उस कमरे को देखना चाहते हैं। इसके लिए श्रद्धालुओं का लगातार आग्रह आ रहा होता है जिसने होटल प्रबंधन के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है। ये स्थिति उन राजनीतिज्ञों के लिए भी करारा जवाब है जो वंशबेल पर लटक कर सत्ता की कुर्सी तक पहुँच गए, और फिर श्रधालुओं की भावना की रत्ती भर परवाह किये बिना अनर्गल बयान देने लगे थे। सत्ताधारी पार्टी राजद को भी बागेश्वर बाबा के विरोध के कारण सोशल मीडिया पर खासी फजीहत झेलनी पड़ रही है।
राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए हाल में बिहार के राजद नेता कई बार अनर्गल बयान दे चुके हैं। थोड़े दिन पहले शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने रामचरितमानस के विरोध में बयान दिए थे जिसके कारण उन्हें चौतरफा निंदा झेलनी पड़ी। उसके बाद बारी आई मुख्यमंत्री युगल लालू-राबड़ी के सुपुत्र और उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के भाई, स्वयं भी मंत्री तेज प्रताप यादव की। अपनी विचित्र हरकतों और बयानों के लिए अक्सर चर्चा में रहने वाले तेज प्रताप कभी हैण्डपंप पर नहाते नजर आ जाते हैं, तो कभी अपनी पारिवारिक स्थिति के लिए विवादों में रहते हैं। जनहित के किसी कार्य के लिए शायद ही कभी उनका जिक्र कहीं आया होगा। जैसे उनके पिता लालू ने आडवानी जी की रथ यात्रा रुकवाई थी, उसी विरासत को हथिया लेने की जुगत में बड़े भाई होने के वाबजूद छोटे को उप-मुख्यमंत्री बना दिए जाने से कसमसाते तेज प्रताप यादव ने बागेश्वर बाबा के खिलाफ बयानों की झड़ी लगा दी। एक कदम और आगे बढ़ते हुए उन्होंने आरएसएस की तर्ज पर, करीब-करीब वैसे ही हुलिए में पतलून का रंग हरा करके डीएसएस (डेमोक्रेटिक स्वयं सेवक) बनाने की घोषणा भी कर दी। कुछ दिन तक 8-10 हरी पतलून वाले युवाओं के संग वो तस्वीरों में भी दिखे।
जब बागेश्वर बाबा का पटना आना तय हो गया तो कई सरकारी या सत्ताधारियों के प्रश्रय पर चलने वाले सोशल मीडिया चैनल जो यू-ट्यूब के माध्यम से तथाकथित पत्रकारिता में जुटे हैं, उन्होंने कहना शुरू किया कि बागेश्वर बाबा को बिहार में कोई नहीं पूछता। जब ऐसी हवा बनाने से काम नहीं चला तो कहा जाने लगा कि बागेश्वर बाबा आ भी रहे हैं या नहीं, क्या पता? इन अफवाहों का असर होने से पहले ही तेजप्रताप यादव बागेश्वर बाबा को रोकने के लिए “सरकार किसकी है, पता है न?” जैसे सवाल भी दाग चुके थे। पीने के पानी, ढंग की सड़क, खाने-पीने जैसी कई चीजों की दिक्कत होने के बाद भी सरकार बहादुर ने पता नहीं किसके इशारे पर बागेश्वर बाबा को पटना के गाँधी मैदान जैसी किसी जगह कार्यक्रम का स्थान देने के बदले नौबतपुर भेजने की ठानी। भक्तों पर इन सारे तिकड़मों का कोई असर नहीं हुआ। लाखों-लाख की संख्या में श्रद्धालु नौबतपुर पहुँचने लगे। आयोजकों को जितनी उम्मीद थी, उससे दोगुनी से भी अधिक संख्या आ पहुंची। जब पर्चियों की गिनती तेरह लाख जा पहुंची तो मजबूरन बाबा बागेश्वर को निवेदन करके और पर्चियां लेना, भक्तो के व्यक्तिगत प्रश्नों को लेना बंद करना पड़ा।
जो लोग कहते हैं कि मंदिर बनने से रोटी मिलेगी क्या? किसी को रोजगार मिलेगा क्या? ऐसे सभी लोगों को इन आयोजनों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। लाखों की संख्या में इन पांच दिनों में बिके नारियल, पूजन सामग्री, इतने लोगों की आवाजाही में वाहनों का खर्च, ठहरने-भोजन आदि से होटल इत्यादि को हुई आय भी तो जोड़ी जानी चाहिए। जैसे मेडिकल टूरिज्म भारत के लिए एक व्यवसाय भी है, वैसे ही धार्मिक पर्यटन से भी तो सीधी आय जुड़ी होती है। कई ऐसे लोग हैं जो धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री का नाम चमत्कारों से जोड़कर उनपर सवाल उठाते रहते हैं। राजनैतिक रूप से “अत्यंत जागरूक” और घनघोर जातिवाद की चपेट में बताये जाने वाले राज्य बिहार में जब धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री आते हैं, तो लोग अचानक एक सत्ताधारी राजनैतिक दल द्वारा उनका विरोध भूल जाते हैं! जातिवाद भी भूलकर, सब के सब पटना-नौबतपुर पहुँचने लगते हैं। कल तक जिस नौबतपुर का रास्ता एक बार को पटना शहर में रहने वालों के लिए भी बताना मुश्किल होता, वो अब अख़बारों, वेबसाइट इत्यादि की वजह से जाना-माना है। इसको चमत्कार कहा जाये या नहीं, ये भी तो एक बड़ा सवाल है।
तथाकथित सेक्युलर और समाजवादी राजनीति करने वालों को समझना होगा कि सोशल मीडिया, लाखों फोन में इन्टरनेट कनेक्शन और वीडियो बनाने-पोस्ट करने की क्षमता के युग में उनके लिए अपनी बातें दस लोगों तक पहुँचाना जितना आसान है, उतना ही आसान किसी आम आदमी के लिए भी है। सोशल मीडिया जो अज्ञात होने, दूर बैठे जवाब दे देने की क्षमता देता है, उसने अख़बार, रेडियो या टीवी का एकतरफा सन्देश प्रसारित करने का दौर भी ख़त्म कर डाला है। अब आम लोग पलटकर किसी संपादक महोदय को, किसी नेता जी किसी मंत्री जी को उतना ही चुभता हुआ जवाब दे देते हैं, जितना चुभता हुआ उनका प्रश्न था। तो जो “धर्म को राजनीति से अलग” रखने का जुमला वो उछालते रहते हैं, कहीं न कहीं उसका सचमुच पालन किये जाने की भी जरूरत है। ऐसा न करने पर जो फजीहत होती है, वो बाबा बागेश्वर के दरबार में लगी भीड़ ने तो दिखा ही दी है!