बंद रेलवे फाटक से रिक्शा निकालना: कला या विज्ञान?बंद रेलवे फाटक से रिक्शा निकालना: कला या विज्ञान?

आप लेख के शीर्षक पर अचंभित हों, इस से पहले ही बता दें कि विज्ञान का लक्षण है कि एक ही तरीके से एक ही परिस्थितियों में एक ही प्रक्रिया दोहराई जाए तो नतीजे बिलकुल समान होंगे। इस लिहाज से बंद रेलवे फाटक से रिक्शे का आगे का आधा भाग निकालना, फिर उसके आगे के चक्के को करीब पैंतालिस से साठ डिग्री के कोण पर उठाना, और फिर उसके पिछले दोनों चक्कों और पार्श्वभाग को फाटक के नीचे से चतुराईपूर्वक आगे खींच कर पूरे रिक्शे को निकाल लेना एक विज्ञान है। विज्ञान इसलिए क्योंकि हर बार ऐसा करने पर रिक्शा फाटक के नीचे से निकल आएगा।

अब सवाल है कि जब ये विज्ञान की तरह हर बार एक ही नतीजा देगा, तो फिर इसके कला होने का प्रश्न कहाँ से उठता है? कला इसलिए है क्योंकि कई बार रिक्शे पर सवारी भी होगी। ऐसी स्थिति में रिक्शे वाले का सवारी को थोड़ी देर के लिए उतर कर फाटक की दूसरी तरफ फिर से बैठ जाने के लिए मनाना, या फिर सवारी का खुद ही उतर कर रिक्शेवाले से ऐसा करने के लिए कहना भी जरूरी हो सकता है। ये मानना-मनाना एक कला है। फिर समय भी निश्चित करना होता है, ट्रेन की फाटक से दूरी, वहां मौके पर किसी पुलिसकर्मी की मौजूदगी, पुलिसकर्मी का रिक्शेवाले के अंग विशेष पर चार लाठी धर देने जैसा मूड होना या ना होना, ये सब भी कला के आधार पर ही निर्धारित होगा।

दोनों बातों को मिला कर देखा जाए तो बंद रेलवे फाटक से रिक्शा निकालना कला और विज्ञान दोनों ही हैं। अफ़सोस कि इस कला और विज्ञान का नित्य प्रयोग करने वाला बिहारी रिक्शावाला कला और विज्ञान पढ़ा तो क्या, साक्षर हो ये भी जरूरी नहीं होता। वैसे मुझे नहीं लगता कि साक्षर होने से उसपर कोई विशेष फर्क पड़ता। उसी रेलवे फाटक से झुका कर बाइक भी निकाली जाती है। मोटरसाइकिल चलाने के लिए मिलने वाला ड्राइविंग लाइसेंस कम से कम मैट्रिक पास लोगों को ही मिलता है, और वो कई बार ऐसा करते दिखते हैं। नियम-कायदे तोड़ने में साक्षर हों या निरक्षर, बिहारी का कोई सानी नहीं होता। अगर आप कहेंगे कि ये काम गलत है तो एक बिहारी होने के नाते हम खुद भी पहले सरकार को कसूरवार ठहराएंगे।

सरकार की गलती क्यों? एक तो इसलिए क्योंकि उसने रेलवे फाटक के ऊपर से ओवर ब्रिज नहीं बनवाए। पुल हैं ही नहीं और कोई सूचना भी नहीं होती कि ट्रेन कितनी देर में आएगी तो बेचारा मासूम बिहारी कितनी देर इन्तजार करे? इसके अलावा सिर्फ लाइसेंस लेने के लिए मैट्रिक का सर्टिफिकेट जरूरी है। साल दर साल पढ़ाई के दौरान ट्रैफिक नियमों के बारे में कितना पढ़ाया जाता है? प्रायोगिक तौर पर कर के कितना सिखाया जाता है कि लहरिया कट मारना, गलत तरीके से ओवरटेक करना, बेवजह हॉर्न बजाते रहना लोगों को कितना परेशान करता है? जब पचपन प्लस वाली पीढ़ी ने सिखाया ही नहीं, तो पच्चीस या उस से कम उम्र की सीखने वाली पीढ़ी का क्या कसूर?

आज की तारिख में शहरों से वो मैदान गायब होते जा रहे हैं जहाँ परिवार के किसी बड़े की निगरानी में बच्चे गाड़ी चलाना सीखते थे। पहली मोटरसाइकिल भी अपनी कमाई की होती थी, अजहरुद्दीन के सुपुत्र की तरह कोई जन्मदिन के तोहफे में मिली हुई नहीं होती थी। तो गलत तरीके से चलाना सीखने की कोशिश पर डांट कर सुधारा भी जाता था और अपनी मेहनत के पैसों से खरीदी गाड़ी के खराब होने का डर भी रहता था। अब जब ये दोनों ही नहीं हैं तो फिर थोड़े ही वर्षों में नयी पीढ़ी क्या कर रही होगी? इसमें अब कम होती सड़कें और बढ़ती गाड़ियाँ जोड़िये। लचर कानून व्यवस्था, नदारद ट्रैफिक नियंत्रण, और कानून तोड़ना मतलब सूरमा होने का भाव भी जोड़ लीजिये।

अगर आपको ऐसा लगता है कि ये समय से पहले लिखा गया है तो ऐसा कुछ भी नहीं है। बिहार में असल में बिहारियों ने ऐसी व्यवस्था बनाकर रखी है कि इसकी चोट खुद को महसूस होनी शुरू हो चुकी होगी। हाल में ही गया के रास्ते में ओवरटेक करने के मामले में एक नौजवान को किसी नेता-पुत्र ने गोली मार दी थी। उस मामले के गवाह पलट चुके हैं और मानकर चलिए कि किसी को सजा नहीं होगी। हाल में ही स्कूल के बच्चों पर गाड़ी चढ़ा देने का एक मामला मुजफ्फरपुर का भी था जिसमें कोई भाजपा नेता घेरे में आये थे। निश्चिन्त रहिये उस मामले में भी किसी को, कोई ह्त्या की सजा नहीं होने वाली। ट्रैफिक पुलिस में नए एस.पी. साहेब के आने पर हेलमेट पहनने और सड़क पर नियम पालन की थोड़ी कवायद दिखती है, जो ख़ास फायदे की होती भी नहीं, बस कुछ ना होने से कुछ होना बेहतर जैसी होती है।

ये मसला ऐसा है जो ध्यान ना देने, या ऊंट के मुंह में जीरे जैसे प्रयासों से सुलझने वाला नहीं है। चिड़िया खेत चुग जाए और तब ध्यान जाए, फिर छाती पीटें अफ़सोस करें इस से बेहतर है कि समय से चेतिए। सही सवालों पर ध्यान दीजिये इस से पहले कि बहुत देर हो जाए।

#Bihar #Traffic #Learning

(तस्वीर #सहर्षा के मुख्य रेलवे जंक्शन के पास बस स्टैंड को मुख्य बाजार से जोड़ने वाली सड़क की है, सहर्षा को अब अपभ्रंश में #सहरसा कहा जाता है)

By anandkumar

आनंद ने कंप्यूटर साइंस में डिग्री हासिल की है और मास्टर स्तर पर मार्केटिंग और मीडिया मैनेजमेंट की पढ़ाई की है। उन्होंने बाजार और सामाजिक अनुसंधान में एक दशक से अधिक समय तक काम किया। दोनों काम के दायित्वों के कारण और व्यक्तिगत रूचि के लिए भी, उन्होंने पूरे भारत में यात्राएं की हैं। वर्तमान में, वह भारत के 500+ में घूमने, अथवा काम के सिलसिले में जा चुके हैं। पिछले कुछ वर्षों से, वह पटना, बिहार में स्थित है, और इन दिनों संस्कृत विषय से स्नातक (शास्त्री) की पढ़ाई पूरी कर रहें है। एक सामग्री लेखक के रूप में, उनके पास OpIndia, IChowk, और कई अन्य वेबसाइटों और ब्लॉगों पर कई लेख हैं। भगवद् गीता पर उनकी पहली पुस्तक "गीतायन" अमेज़न पर बेस्ट सेलर रह चुकी है।

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