अगर आप इतिहास से नहीं सीखते तो क्या होता है? इतिहास चक्र की तरह अपने आप को दोहराता है! तबतक, जबतक की आप गलतियों से सबक लेकर उन्हें सुधारना शुरू नहीं कर देते। ऐसा ही कुछ करीब सौ साल पहले हुआ था जब 1918 में “इन्फ्लुएंजा” अपने चरम पर था। अभी जैसा ही उस वक्त भी इस बीमारी से जवान लोग ज्यादा मर रहे हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि मृतकों में से करीब 10 प्रतिशत ही जवान लोग थे। ऐसा भी नहीं कि इस बीमारी का इलाज कोई फ़ौरन मिल गया हो। वैज्ञानिक और डॉक्टर 1933 में जाकर ये समझ पाए कि ये बीमारी किसी बैक्टीरिया से नहीं बल्कि एक वायरस से हुई थी।

जैसे अभी किसी तारे या आसमानी आफत से जोड़ने की कोशिश होती है, उस वक्त भी हुआ था। इटली के विद्वान मानते थे कि ये रेनेसां के असर से आया “सेलेस्टियल इन्फ्लुएंस” है, इसी वजह से इसका नाम “इन्फ्लुएंजा” हुआ। ये विश्व युद्ध का दौर था और कई पश्चिमी देशों में ऐसा माना जा रहा था कि उनके सिपाही लड़ते हुए मरने के बदले, इस बिमारी से पहले ही मरे जा रहे हैं! इसके कारण भी अमेरिकी डॉक्टरों पर इसका इलाज खोजने का दबाव था। अमरीकी प्रेसिडेंट विल्सन ने इस बीमारी को नियंत्रित करने की कमान जॉन होकीन्स संस्थान के प्रमुख डॉ. विलियम वेल्श को थमा रखी थी।

 

इस बिमारी से होने वाली मौतें भयावह थीं। बुखार और शरीर में दर्द जैसे लक्षण दिखने शुरू होते, फिर काफी रक्तस्राव और अंत में फेफड़ों का बेकार हो जाना। उस दौर में इससे करीब 4 करोड़ (40 मिलियन) लोगों की मौतें हुईं। सरकारी तंत्रों का प्रयास उस दौर में भी वैसा ही था, जैसा आप उम्मीद कर सकते हैं। ये सोचकर सही नतीजे बताये नहीं जा रहे थे कि कहीं लोगों में डर ना फैले। जॉन बैरी की किताब “द ग्रेट इन्फ्लुएंजा” के मुताबिक अमेरिका में कुछ जगहों पर स्थानीय नेतृत्व आगे आया और कुछ में नहीं। सेंट लुइस में फ़ौरन शहर ने सुरक्षा इंतजाम किये मगर फिलेडेल्फिया के मेयर नहीं माने। उस वक्त भी फिलेडेल्फिया में लाशों के ढेर लग गए थे, अभी भी गलत वजहों से फिलेडेल्फिया चर्चा में है।

आज के समय में इन्फ्लुएंजा से हर साल करीब पांच लाख लोग मरते हैं। संभव है कि किसी दिन कोरोना से भी ऐसा हो और हम रोज की तरह आंकड़े देखना बंद कर दें। एक और चीज़ जो “द ग्रेट इन्फ्लुएंजा” बताती है, वो ये है कि विश्व युद्ध के नतीजों पर इस बीमारी का गंभीर असर हुआ था। फ्रांस इस बीमारी की वजह से जर्मनी से ऐसी संधि कर पाया जिसके नतीजे जर्मनी के लिए बुरे रहे। कई इतिहासकार मानते हैं की इन संधियों की वजह से जो आर्थिक रूप से दुर्बल हुए राष्ट्र में राजनैतिक अस्थिरता आई, उसकी वजह से हिटलर का उदय संभव हुआ। हो सकता है कि इन्फ्लुएंजा नहीं आता तो हिटलर भी नहीं बनता। कोरोना से आई आर्थिक मंदी भी निश्चित तौर पर विश्व इतिहास पर असर छोड़ेगी ही।

तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति के दौर में जब आप वापस प्राचीन भारतीय संस्कृति के उसी “नमस्कार” जैसी प्रथाओं की ओर बढ़ रहे हैं, जिन्हें कभी आप पानी पी पी कर कोसते थे, तो शायद कई चीज़ों पर दोबारा सोचने की भी जरुरत है। अब जब लम्बे समय तक घरों में बंद रह चुके हैं तो शायद ये भी समझ आया होगा कि हमने जो इकठ्ठा कर रखा है, उनमें से किन चीज़ों की हमें सचमुच जरूरत है। लोगों की घर पहुँचने में मदद करते, या खाने-पीने का इंतजाम करते जैसे लोग दिखे और साथ ही कालाबाजारी और नीचता पर उतरे लोग भी नजर आये हैं। आदमी की अच्छाई और उसका कमीनापन भी बिलकुल इसी तरह 1918 के इन्फ्लुएंजा के दौर में भी दिखा था।

एक और चीज़ गौर करने लायक है कि भारत में भी प्लेग, कॉलरा जैसी महामारियां फैली। इसके वाबजूद भारतीय भाषाओं में ऐसी किताबें कम ही दिखती हैं जहाँ ऐसी घटनाओं को लिखकर सहेजा गया हो। कुछ साल पहले दशरथ मांझी के गाँव में एक बुजुर्ग और सेवानिवृत हो चुके डॉ. गणेश से मुलाकात याद आती है। उन्होंने मुंगेर के पास के किसी गाँव में एक ही नहर होने, वहां कॉलरा के आने, और गाँव के मुखिया के बेटे की बिमारी की भेंट चढ़ने का किस्सा सुनाते हुए कहा था कि आज हम कह सकते हैं कि हमने अपने दौर में कॉलरा पर जीत हासिल की थी। शायद किसी दिन तुम पॉक्स और पोलियो पर विजय की कहानियां सुनाओगे!


अब जब लॉक-डाउन ख़त्म हो रहा है तो सोचना पड़ता है कि अगर ये जीत है तो फिर जीत का उल्लास कहाँ है? ऐसे में कभी पढ़ी हुई एक शिकार की कहानी याद आती है। उसमें शिकारी घात लगाकर बैठता तो एक बाघ के लिए है, मगर वहां एक जंगली सूअर और बाघ दोनों एक ही वक्त आ जाते हैं। शिकारी जबतक ये तय करता कि किसपर पहले निशाना लगाए, तबतक बाघ और सूअर आपस में लड़ पड़ते हैं। सूअर अपनी जान बचाना चाहता था और बाघ अपने इलाके पर कोई दावा स्वीकारने को तैयार नहीं था। आखिर बुरी तरह घायल दोनों ही शिकारी की गोली से मरते हैं। कोरोना के साथ भी मैच बोक्सिंग जैसा चला। राउंड की गिनती के हिसाब से ये ख़त्म हो गया है, लेकिन पॉइंट के हिसाब से कोरोना ही जीतता लगता है।

बाकी जब समय मिले तो कभी बिमारियों पर लिखी गई किताबें देखिएगा। “द ग्रेट इन्फ्लुएंजा” जैसी किताबों में ये भी पता चलता है कि हम व्यक्ति के तौर पर ही नहीं, समाज के रूप में भी अपनी हरकतें दोहराते चलते हैं!

By Shubhendu Prakash

शुभेन्दु प्रकाश 2012 से सुचना और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र मे कार्यरत है साथ ही पत्रकारिता भी 2009 से कर रहें हैं | कई प्रिंट और इलेक्ट्रनिक मीडिया के लिए काम किया साथ ही ये आईटी services भी मुहैया करवाते हैं | 2020 से शुभेन्दु ने कोरोना को देखते हुए फुल टाइम मे जर्नलिज्म करने का निर्णय लिया अभी ये माटी की पुकार हिंदी माशिक पत्रिका में समाचार सम्पादक के पद पर कार्यरत है साथ ही aware news 24 का भी संचालन कर रहे हैं , शुभेन्दु बहुत सारे न्यूज़ पोर्टल तथा youtube चैनल को भी अपना योगदान देते हैं | अभी भी शुभेन्दु Golden Enterprises नामक फर्म का भी संचालन कर रहें हैं और बेहतर आईटी सेवा के लिए भी कार्य कर रहें हैं |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *