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भारत की वल्नरेब्लिटी (भेद्यता/कमजोर कड़ियाँ) का फायदा उठाकर कैसे विभाजन की रेखाओं (फाल्ट लाइन्स) का फायदा उठाया जाये, भारत को तोड़ा जाये, ये उनका मकसद है। कश्मीर एक अलग देश हो, तमिल भाषा बनाम हिंदी, चिकेन नेक काटकर पूर्वोत्तर को अलग करने के प्रयास, ये सभी हमलोग हाल के समय में देख चुके हैं। ऐसे कई प्रयासों का गढ़ हॉवर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में है। हाल में “डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व” जैसे आयोजनों के जरिये हिंदुत्व को बदनाम करने के विश्वविद्यालय स्तर के प्रयास हमने देखे हैं। ऐसे आयोजनों की बाद अमेरिका-ब्रिटेन इत्यादि देशों में हिन्दुओं पर हमलों की घटनाएँ बढ़ी हुई भी दिखती हैं।
जब आप “जागो हिन्दू जागो” के नारे का मजाक उड़ा रहे थे, उसी दौर में “वोक कल्चर” पैदा हो गया। मूलतः “वोक” का अर्थ ही जागा हुआ होता है! है न विचित्र? जिसके लिए आपका मजाक उड़ाया जाता है, वही कोई अपने आन्दोलन का नाम रख लेता है। इस आन्दोलन को आप सरकारी तंत्र में, शिक्षण संस्थानों में, संस्कृति और समाज में घुसते हुए भी आराम से महसूस कर सकते हैं। पश्चिमी अवधारणाओं का कॉर्पोरेट जगत में प्रवेश भी दिख जायेगा। सरकारी तंत्र अभी तक केवल हिन्दुओं में अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन (आर्थिक) देता है, लेकिन कॉर्पोरेट जगत में ये गे-लेस्बियन विवाह के लिए भी शुरू हो चुका है।
सामाजिक न्याय की अवधारणा जो राजनीति से शुरू होती दिखी थी, वो अब और क्षेत्रों में प्रवेश कर रही है और किसी न किसी तरह छोटे-छोटे धड़ों को शोषित बताकर अलगाव की राजनीति जारी है। ऐसे ही मुद्दों पर ये किताब “स्नेक्स इन द गंगा” प्रकाश डालती है। अकादमिक जगत में ऐसी घुसपैठ का असर होता है। नयी शिक्षा नीति (नेशनल एजुकेशन पालिसी 2020) में जो “लिबरल आर्ट्स” नजर आता है, वो ऐसे कई विचारों को शिक्षा के जरिये किशोर-युवा मन में बिठा सकता है। जिसे हम-आप आज “इकोसिस्टम” बुलाते हैं, वो विचारों, संस्थाओं, संगठनों और युवा नेताओं को मिलाकर ही बनता है।
बदलते हुए दौर में हमें किसका सामना करना है, भारत विखंडन के लिए दशकों से जो शक्तियां जुटी हुई हैं, वो कैसे रूप बदल रही हैं, इसका अनुमान लगाना हो तो “स्नेक्स इन द गंगा” पढ़ने लायक पुस्तक होगी। इसकी अंग्रेजी उतनी सरल नहीं, न ही विषय सरसरी निगाह से पढ़ लेने पर समझ में आने वाले हैं। धीमी गति से ठहरकर अगर पढ़ सकते हों, तो इस मोटी सी किताब को पढ़िए।