सबसे पहले तो ये समझ लीजिये कि जो लोग कह रहे हैं कि राजद्रोह या देशद्रोह से जुड़े कानूनों को सुप्रीमकोर्ट ने हटा दिया है, वो झूठ कह रहे हैं। ब्रिटिश उपनिवेश काल में जब “खलिफत” यानि इस्लामिक निजाम को भारत में स्थापित करने की जब कोशिशें हो रही थीं, तब फिरंगी हुक्मरानों ने 1860 में ये 124 ए बनाया था। सिर्फ इस एक कानून के हटने से राजद्रोह-देशद्रोह की सभी धाराएं गायब नहीं हो जाती। भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी में 121 से लेकर 127 तक के कानून इसी मुद्दे पर हैं और सभी को हटाने की बात तक नहीं हो रही है।

 

अभी सिर्फ केंद्र सरकार को इस मामले का अध्ययन करने कहा गया है। मोटे तौर पर धारा 124 ए कहती है कि कोई भी जो भारत के स्थापित कानूनों के अंतर्गत बनी सरकार के खिलाफ़ दुर्भावना या नफ़रत फ़ैलाने का प्रयास करता है, उसे राजद्रोह का अपराधी माना जा सकता है। इसका मतलब है कि आप अगर किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की सरकार की “कड़ी निंदा” भी कर दें, उसकी नीतियों तक के खिलाफ सोशल मीडिया पर कुछ लिख दें, तो आपपर ये धारा लगाईं जा सकती है। बिहार में हाल ही में ऐसे ही एक कानून के लागु होने पर बातें हुई थीं।

इस कानून के प्रयोग का सबसे ताजा उदाहरण नवनीत राणा और उनके पति के खिलाफ हुआ मुकदमा है, जिसमें महाराष्ट्र की सरकार ने यही धारा लगा रखी है। क्यों लगा रखी है? क्योंकि वो लोग महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के घर के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने की बात कर रहे थे। ये कानून हमेशा से अभी जैसा ही रहा हो, इसमें इतनी मुश्किल से जमानत मिलती हो, ऐसा बिलकुल नहीं था। इस कानून का खुलकर इस्तेमाल करने वाली थीं कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी। जब 1971 से 1973 के बीच इसका इस्तेमाल करते हुए उन्हें लगा कि इसके दांत उतने पैने नहीं हैं, तो उन्होंने इसमें अपनी जरूरत के हिसाब से बदलाव कर लिए।

 

कानूनों के मामले में, बदलाव हुए हैं या नहीं, इसे समझना बिलकुल आसान है। अगर धारा में सिर्फ संख्या है तो वो मूल कानून है, जिसमें परिवर्तन नहीं किया गया। जैसे ही संख्या के बाद कुछ ए, बी, सी जैसा लगा दिखे, इसका मतलब है कि संशोधन हुए हैं। इंदिरा गाँधी ने इस 124 ए को कॉग्निजेबल ओफ्फेंस बना दिया था। जब नया सीआरपीसी 1973 में तैयार होकर 1974 में लागू हुआ तो इसका नया रूप प्रभाव में आया। इसके नए रूप के प्रभाव में आने के बाद इसका सबसे अधिक लोगों पर प्रयोग करने वाले भी कांग्रेस के ही थे। पिछली कुछ सरकारों के दौरान पी चिदंबरम ने हजारों लोगों पर इस धारा का प्रयोग किया था।

 

हो सकता है कुछ मासूम, भोले-भाले, क्यूट हीनुओं को कॉग्निजेबल ओफ्फेंस और नॉन- कॉग्निजेबल ओफ्फेंस का अंतर नहीं पता हो। इसे सीखने का आसान तरीका ये है कि नजदीक के किसी भी थाने में जाकर अपना मोबाइल फोन चोरी हो जाने की रिपोर्ट लिखवाने की कोशिश कीजिये। आपको इस काम में काफी दिक्कतें आयेंगी। अब अपना बयान बदलिए और कहिये घर लौटने के रास्ते में संभवतः कहीं गिर गया। चोरी हुआ या नहीं, ये पता नहीं। रिपोर्ट आराम से लिख ली जाएगी। ये जो चोरी लिखवाने में हुई दिक्कत और गुम होना लिखवाने में दिक्कत नहीं हुई, वही कॉग्निजेबल ओफ्फेंस और नॉन- कॉग्निजेबल ओफ्फेंस का अंतर है।

 

मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद काल के कानूनों को ख़त्म करती आ रही है। कई नामी-गिरामी पक्षकार इस मुद्दे पर लिख चुके हैं। अगर धारा 124 ए जाती है तो आम आदमी पर बेकार के मुक़दमे लादकर उसे धमकाना, थोड़ा मुश्किल हो जायेगा। सरकारों के लिए आम आदमी को धमकाना मुश्किल हो, ये तो लोकतंत्र के हित में ही लगता है। बाकी सचमुच कानून के जाने तक का इंतजार करके देखिये। अगर सचमुच गया तो खुश होने लायक बात तो होगी ही।

By anandkumar

आनंद ने कंप्यूटर साइंस में डिग्री हासिल की है और मास्टर स्तर पर मार्केटिंग और मीडिया मैनेजमेंट की पढ़ाई की है। उन्होंने बाजार और सामाजिक अनुसंधान में एक दशक से अधिक समय तक काम किया। दोनों काम के दायित्वों के कारण और व्यक्तिगत रूचि के लिए भी, उन्होंने पूरे भारत में यात्राएं की हैं। वर्तमान में, वह भारत के 500+ में घूमने, अथवा काम के सिलसिले में जा चुके हैं। पिछले कुछ वर्षों से, वह पटना, बिहार में स्थित है, और इन दिनों संस्कृत विषय से स्नातक (शास्त्री) की पढ़ाई पूरी कर रहें है। एक सामग्री लेखक के रूप में, उनके पास OpIndia, IChowk, और कई अन्य वेबसाइटों और ब्लॉगों पर कई लेख हैं। भगवद् गीता पर उनकी पहली पुस्तक "गीतायन" अमेज़न पर बेस्ट सेलर रह चुकी है।

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