शराबबंदी पर हिंदू समाज जिस तरह मौन है, वह चिंताजनक है। हमारे धर्म में कई परंपराओं और स्थलों पर प्रसाद के रूप में मदिरा का उल्लेख मिलता है। वहीं, ईसाई समुदाय को वाइन बनाने की अनुमति है, लेकिन हम महाकाल का प्रसाद तक नहीं ला सकते—यह कैसा न्याय है?
कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री को एक महिला के माथे से आँचल हटाते हुए देखा गया, और फिर एक बुर्का खींचने की घटना सामने आती है। सवाल सिर्फ धर्म का नहीं, व्यक्तिगत गरिमा और सहमति का है। राज्य का मुखिया अगर स्वयं मर्यादा और प्रोटोकॉल नहीं समझेगा, तो संदेश क्या जाएगा?
कभी जींस पर टिप्पणी, कभी पहनावे पर नियंत्रण, कभी खान-पान पर—यह सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा। स्वामी विवेकानंद ने पूछा था:
“क्या हम अपनी पूरी ज़िंदगी इस बहस में गुज़ार देंगे कि क्या खाया जाए और क्या पिया जाए?”
आज वही प्रश्न और प्रासंगिक हो गया है।
हिंदू समाज भीतर से बंटा हुआ है—किसी को महाकाल का प्रसाद स्वीकार्य है, किसी को नहीं। इसी बंटवारे का लाभ सत्ता उठाती है। और जब एक समुदाय पर कार्रवाई होती है, तो दूसरा मौन रहता है—यह चुप्पी ही सबसे बड़ा संकट है।
यह समय है कि हिंदू और मुस्लिम, महिलाएँ और पुरुष—सब मिलकर शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीके से सवाल पूछें।
सम्मान बिकाऊ नहीं है, न ही उसे किसी राशि से तौला जा सकता है।
आइए, नफ़रत या हिंसा नहीं—संविधान, संवाद और एकता के साथ अपनी बात रखें।
यही रास्ता है, यही समाधान।
राधे राधे
