नेताजी सुभाष चंद्र बोस, एक क्रांतिकारी, एक लीडर, आजादी के जुनूनी या फिर जितने भी सच्चे शब्द दर्ज हो सकते हैं एक राष्ट्र के लिये आजन्म समर्पित रहने हेतु, वह सभी शब्दों के एकमात्र हकदार कोई हैं तो वो हैं सिर्फ और सिर्फ बोस बाबू। ऐसा कहकर मैं बाकियों के योगदान को कमतर नहीं कर रही, बस अपने आदर्श को संभवतः मानवीय स्वभाव के हिसाब से मूल्य दे रही हूं।

बोस बाबू का जन्म, इनकी कॉलेज लाइफ, सिविल सेवा परीक्षा पास कर उसे ठुकराना, कोंग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय गांधी-नेहरू से इनका अलगाव, आजाद हिंद फौज की लड़ाई, जापान विमान दुर्घटना, फिर आजतक समाप्त ना होने वाला एक रहस्य! काफी कुछ है जो मात्र गूगल पर उपलब्ध हैं आपके पढ़ने के लिये। मेरी रुचि इन तिथियों या सिलसिलेवार घटनाओं को डालकर सुभाष बाबू को लिखने में नहीं है। दरअसल एक महान व्यक्ति, भारत के इतिहास के पन्नों में इतना अधूरा-अधूरा सा क्यों लगता है? उनकी जयंती मनाना, उनके मूर्ति पर माल्यार्पण और ‘नेताजी’ संबोधन( एक ऐसा संबोधन जो आजकल उनलोगों हेतु भी लोकप्रिय हैं, जिन्हें राजनेता देखकर मुझे क्षोभ होता है कि मुझे आजाद नहीं बल्कि गुलाम भारत में ही पैदा होना चाहिये था), इतना ही काफी है!

दरअसल भारतीयों में इतिहास लिखने की परंपरा कभी समृद्ध नहीं रही। प्राचीन भारत को धार्मिक मूल्यों से फुर्सत नहीं मिली, मध्यकाल ने राजाओं के चरण धो-धो कर पिये, आधुनिक काल में मैकाले और उसके पुत्रों ने रूडयार्ड किपलिंग की थ्योरी ‘ व्हाइट मेंस बर्डेन’ में हमारे इतिहास को ही असभ्य और बर्बर बना दिया। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध और आजादी के बाद के भारत में लिखी गयी आजादी की लड़ाई मात्र ‘सत्य और अहिंसा’ के सिद्धांत को ढोती नजर आती है, जहां एक महात्मा के अहिंसा और उसे आगे बढ़ा रहे नेहरू के पंचशील के बोझ तले बोस बाबू की क्रांति दबती और भगत सिंह की शहादत धुली-धुली सी नजर आती है। मैं किसी के योगदान को कतई खारिज नहीं कर रही हूं। लेकिन जिस इतिहास को दीखाया जाता है, एक बचपन से हमारे माथे में भरा जाता है, वह सच का विश्लेषण ना होकर किसी एक पहलू को विशाल बनाकर उसकी मानसिक गुलामी के इतर कुछ है भी नहीं!

बोस बाबू के छात्र जीवन में ही यह तय हो जाता है कि उन्हें आजादी के लिये बिल्कुल अलग तरीका चाहिये था। बोस बाबू संभवतः जानते थे कि 1857 की क्रांति की पुनरावृत्ति अंग्रेज कभी नहीं चाहते थे, तभी भारतीय राष्ट्रीय कोंग्रेस की स्थापना की गयी और उन्हें विनय के बदले भीख में थोड़ा-थोड़ा लोकतंत्र और सांस लेने की आजादी सिखायी गयी। यकीनन कुछ इतिहासकारों ने बोस बाबू के मार्ग का मूल्यांकन कर उन्हें अधीर सिद्ध करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। जबकि यह सत्य रहा कि बोस बाबू ने आजादी के लिये कोई एक सिद्धांत या मार्ग नहीं चुना था, परिस्थिति के अनुरूप उन्हौने निर्णय लिये, उनके साधन बदलते गये जबकि साध्य एकमात्र था,’आजादी’।

1938 के हरिपुरा अधिवेशन में जबकि गांधी नहीं चाहते थे कि बोस कोंग्रेस के अध्यक्ष बनें, लेकिन जनता में तेजी से उनकी बढ़ रही लोकप्रियता से वो अध्यक्ष तक पहुंचे थे। गांधी भली-भांति परिचित थे बोस के अंदाज से। बोस गांधी के विचारों का कितना भी सम्मान क्यों ना करते हों, लेकिन वो उनके मार्ग से सहमत नहीं थे, शायद बोस से बेहतर अंग्रेजों की नीतियों को किसी ने समझा भी ना हो। कोलकाता हेडक्वार्टर पर गोलीकांड के बचे अभियुक्त की जमानत देने की बात हो या बोस की अलग रणनीति, दरअसल बोस और गांधी दोनों में से शायद ही कोई किसी को ढोना चाह रहा होगा। यहां से गांधी (नेहरू इस नाम से स्वतः जुड़ जाते हैं) और बोस के रास्ते अलग-अलग हो गये थे।

समकालीन दौर में अंग्रेजों के लिये खतरा कोंग्रेस या गांधी नहीं थे, खतरा बोस थे। क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि गांधी के कहने पर भारतीय सैनिक अंग्रेजों के लिये ही लड़ेंगे और बदले में अंग्रेज उन्हें आश्वासन देंगे। लेकिन बोस चाहते थे कि भारतीय अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ें। यकीनन हिटलर का साथ देने की मंशा का कई इतिहासकारों ने कटु शब्दों में विरोध किया और हमने भी उन पुस्तकों को पढ़कर बोस को गलत मान लिया जिनके ‘सत्य और अहिंसा’ वाले पन्नों की महक में हमें अंग्रेजी अत्याचारों से निकली खून की बू महसूस नहीं होती।

बोस भारत की आजादी मात्र के पक्षधर थे। उन्हें मालूम था कि हिटलर क्रूर है लेकिन वो ये भी जानते थे कि अंग्रेज भारतीयों के लिये उससे कम क्रूर नहीं हैं। परिस्थिति ने बोस को बता दिया था कि हिटलर ही वह रास्ता है जो साम्राज्यवाद की इस लड़ाई में भारत को अंग्रेजों के विरुद्ध जीत दिला सके।

खैर…यह लड़ाई बोस ने अकेले लड़ी, गांधी और उनके सिद्धांतों के विरुद्ध जाकर। अगर इतिहास लिखने के बाद उसपर जनमत होता तो भारतीय जनता और सैनिक दोनों ही बोस पर सहमति दर्ज करते, जो कि आजाद हिंद फौज के प्रति जनता के अपार उत्साह से साफ स्पष्ट है।

1945 में विमान दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद बोस एक रहस्य बन गये। कई किताबें जो उस वक्त के खुफिया चीजों पर लिखी गयीं वो बोस को विमान दुर्घटना के बाद भी जिंदा मानती रही। खैर…यह रहस्य शायद ही कभी निर्विवाद बने। लेकिन उस दुर्घटना के बाद भी बोस जिंदा रहे लोगों में उम्मीद बनकर और अंग्रेजों में खौफ बनकर।

इतिहास में आजादी की लड़ाई में लिखी किताबें लगता है तथ्यों के विश्लेषण की जगह किसी पूर्व स्थापित आदर्शों के गुणगान तक ही सिमट जाती है जिसमें गांधी के सत्य और अहिंसा के बाद जो पन्ने शेष बचते हैं वो नेहरू के इर्द-गिर्द से घूमकर दो-चार पन्नों में क्रांतिकारियों को समेट देते हैं।

लेकिन यह बात सच है कि बोस महान अपने सिद्धांतों की वजह से नहीं बल्कि अपने लक्ष्य की वजह से रहे, वो नेताजी अपने मार्गों की वजह से नहीं बल्कि निर्णयों की वजह से रहे। बोस के सपनों का भारत, आज का भारत तो शायद ही हो, और आज का बंगाल तो खैर हरगिज भी नहीं है। क्योंकि बोस को सही मायनों में आजादी चाहिये थी, टुकड़ों-टुकड़ों में सत्ता नहीं।
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