इस विवाह की बात गर्गाचार्य जी ने नन्दराय को बतायी भी थी किन्तु उन्होंने गोपनीय रखा। जब गोवर्द्धनधारण की लीला हुई तो गोपों को सन्देह हुआ। उन्होंने पूछा कि नन्दजी ! हम गोपों में तो ऐसा अद्भुत पराक्रम देखने को नहीं मिलता है। बलराम यदि ऐसा करते तो समझ में आता है क्योंकि वे वसुदेव-रोहिणी से उत्पन्न क्षत्रिय हैं, किन्तु कृष्ण तो आपकी सन्तान है और गोपों में इतना पराक्रम प्राकृतिक नहीं लगता। ऊपर से आप भी गोरे, यशोदाजी भी गोरी, तो यह आपका बालक काला कैसे हो गया ?
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक्।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥
यद्वास्तु क्षत्रियाणां तु बाल एतादृशो यथा।
बलभद्रे न दोषः स्याच्चन्द्रवंशसमुद्‌भवे॥
तब न चाहते हुए भी नन्दजी को गर्गाचार्य की बात बतानी पड़ी और उन्होंने कहा –
वसवश्चेन्द्रियाणीति तद्देवश्चित्त एव हि।
तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः॥
वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमन्दिरे।
तस्याः पतिरयं साक्षात्तेन राधापतिः स्मृतः॥
(गर्गसंहिता, गिरिराजखण्ड, अध्याय – ०५, श्लोक – १५-१६)
सभी इन्द्रियों को वसु कहते हैं, उन्हीं का देवता चित्त भी है। जो उनमें चेष्टा करे, वह वासुदेव कहलाता है। (इस प्रकार उन्होंने प्रत्यक्ष तो नहीं, किन्तु सङ्केत कर दिया कि श्रीकृष्ण वसुदेवपुत्र हैं) वृषभानु की जो पुत्री कीर्ति से उत्पन्न हुई थी, उस राधा का यह साक्षात् पति है, अतः इसे राधापति भी कहते हैं।
श्रीकरपात्री स्वामीजी का उदाहरण देकर कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने भी श्रीमद्भागवत में राधावन्तः शब्द और राधाजी को स्वीकार किया है। ध्यातव्य है कि यह उनका सिद्धान्तपक्ष नहीं है। एक भक्त के इस भाव को उन्होंने राधादर्शन के निमित्त स्वीकार किया है। श्रीराधासुधा आदि ग्रन्थों में तो उन्होंने शास्त्रीय पक्षों की ही सिद्धान्तव्याख्या की है। मूलप्रसङ्ग के अनुसार सदर्थप्रकाशन करने के अनन्तर भक्त अपनी भावसिद्धि हेतु उसी शब्द के अनेकों भाव व्यक्त करता है, यह भिन्न विषय है, इसे सिद्धान्तपक्ष में परिगणित नहीं किया जाता है।
अब कुछ लोग कुतर्क करते हैं कि राधाजी का विवाह रायाणगोप से हुआ था, अथवा इस अनुसार राधाजी श्रीकृष्ण की मामी लगती थीं, आदि आदि। रायाण गोप स्वयं भगवान् के अंशभूत बारह गोपपार्षदों में हैं –
स च द्वादशगोपानां रायाणः परमः प्रिये।
श्रीकृष्णांशश्च भगवान् विष्णुतुल्यपराक्रमः॥
इन रायाण से वास्तविक राधा का नहीं, अपितु छायाराधा का विवाह हुआ था। छायाराधा पिछले जन्म में केदार की पुत्री वृन्दा थी। भगवान् ने उसे बताया था कि जब राधाजी का विवाह रायाणगोप से निश्चित होगा तो वास्तविक राधा अन्तर्धान हो जाएगी और उनके स्थान पर छायाराधा आ जाएगी, जिसका विवाह रायाणगोप से होगा। जो वास्तविक राधा होगी, वो मेरे (श्रीकृष्ण) के साथ होगी और जो छायाराधा होगी, वह रायाण की पत्नी बनेगी, जिसे मूर्खतावश लोग वास्तविक राधा समझते रहेंगे।
वृषभानसुता त्वं च राधाच्छाया भविष्यसि।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाहं ग्रहीष्यति॥
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा॥
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरूपिणी।
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति॥
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा सान्तर्धाना भविष्यति।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति च गोकुले॥
स्वप्ने राधापदाम्भोजं न हि पश्यन्ति बल्लवाः।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया रायाणकामिनी॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय – ८६, श्लोक – १३७-१४१)
और फिर यही हुआ। बारह वर्ष की होने पर नवयौवन से युक्त राधाजी का विवाह रायाण वैश्य के साथ निश्चित कर दिया गया और वास्तविक राधा अन्तर्धान हो गयीं एवं उनका स्थान छाया राधा ने ले लिया –
अतीते द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम्।
सार्द्धं रायाणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः॥
छायां संस्थाप्य तद्गेहे सान्तर्धानं चकार ह।
बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहच्छायया सह॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण)
माहेश्वरतन्त्र भगवान् शिव को समाधि की अवस्था में प्राप्त हुआ था। उसके अध्याय – २६, श्लोक – १४ में कहते हैं – इदं माहेश्वरं तन्त्रं समाधौ यच्छ्रुतं मया। अध्याय – ०९, चौथे श्लोक में कहते हैं – वृषभानुगृहे जाता राधिकेति च विश्रुता। भगवान् श्रीकृष्ण को गोपियों और पार्श्वस्थित राधाजी के साथ देखकर श्रुतियाँ अत्यन्त विस्मित हुईं। कोई गोपी उन्हें चँवर डुला रही थी, कोई उनके सम्मुख दोनों हाथ जोड़े खड़ी थी, कोई गोपी मणिमयी दीपमालिका सजाकर राधामाधव के मुखकमल की आरती उतार रही थी –
काचिद्गोपी सचमरकरा बीजयन्ती स्वकान्तं
काचिच्चाग्रे करयुगपुटं कृत्य तस्थौ निरीहा।
काचित्स्थाल्यां मणिगणमयीं कृत्य दीपावलिं तां राधाकृष्णप्रतिमुखगता कुर्वती दीपकृत्यम्॥
(माहेश्वरतन्त्र, अध्याय – ५०, श्लोक – ४५)
बैल के रूप में आए अरिष्टासुर को मारने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण गौवध की आशंका से जब चिन्तित हो गए थे तो राधाजी ने राधाकुण्ड का निर्माण करके उसके पवित्र जल से उन्हें स्नान कराया था –
स्नातस्तत्र तदा कृष्णो वृषं हत्वा महासुरम्।
वृषहत्यासमायुक्तः कृष्णश्चिन्तान्वितोऽभवत्॥
वृषो हतो मया चायमरिष्टः पापपूरुषः।
तत्र राधा समाश्लिष्य कृष्णमक्लिष्टकारिणम्॥
स्वनाम्ना विदितं कुण्डं कृतं तीर्थमदूरतः।
राधाकुण्डमिति ख्यातं सर्वपापहरं शुभम्॥
(वराहपुराण, अध्याय – १६४)
धर्मरक्षा हेतु अपने श्रीकृष्णावतार की भविष्यवाणी करते हुए भगवान् विष्णु ने ब्रह्मदेव को वृषभानुजा राधाजी के अवतार की भविष्यवाणी भी बतायी थी –
भूभारासुरनाशार्थं पातुं धर्मं च धार्मिकान्।
वसुदेवाद्भविष्यामि देवक्यां मथुरापुरे॥
कृष्णोहं वासुदेवाख्यस्तथा सङ्कर्षणो बलः।
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च भविष्यन्ति यदोः कुले॥
गोपस्य वृषभानोस्तु सुता राधा भविष्यति।
वृन्दावने तया साकं विहरिष्यामि पद्मज॥
(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, वासुदेवमाहात्म्य, अध्याय – १८)
श्रीराधाजी की प्रार्थना पर कल्कि अवतार लेंगे, यह भविष्यवाणी भी द्रष्टव्य है –
राधया प्रार्थितोऽहं वै यदा कलियुगान्तके।
समाप्य च रहःक्रीडां कल्की च भवितास्म्यहम्॥
(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व, खण्ड – ०४, अध्याय – ०५, श्लोक – २८)
स्वयं सुदर्शनावतार निम्बार्काचार्य जी कहते हैं –
नमस्ते श्रियै राधिकायै परायै
नमस्ते नमस्ते मुकुन्दप्रियायै।
सदानन्दरूपे प्रसीद त्वमन्तः
प्रकाशे स्फुरन्ती मुकुन्देन सार्थम्॥
परम वैष्णव श्रीजीवगोस्वामीजी लिखते हैं कि जीवन और मरण दोनों में श्रीराधाकृष्ण ही उनकी गति हैं –
कृष्णप्रेममयी राधा राधाप्रेममयो हरिः।
जीवने निधने नित्यं राधाकृष्णौ गतिर्मम॥
श्रीरूपगोस्वामीजी कहते हैं कि दुर्गम वेदों के सार, सृष्टि और संहार करने वाले, नवीन किशोरस्वरूप, नित्य वृन्दावन में रहने वाले, भय आदि को दूर करने वाले, पापियों को तारने वाले श्रीराधाकृष्ण का भजन करो। अरे मन ! भजन करो।
अगमनिगमसारौ सृष्टिसंहारकारौ
वयसि नवकिशोरौ नित्यवृन्दावनस्थौ।
शमनभयविनाशौ पापिनस्तारयन्तौ
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ॥
श्रीचैतन्यमहाप्रभु, हितहरिवंश महाप्रभु, भक्तराज खड्गसेन आदि का तो पूरा जीवन राधाभक्ति से ओतप्रोत रहा है। श्रीराधाजी कोई काल्पनिक पात्र नहीं हैं जिन्हें विधर्मियों ने बाद में मिला दिया।
त्रैलोक्यपावनीं राधां सन्तोऽसेवन्त नित्यशः।
यत्पादपद्मे भक्त्यार्घ्यं नित्यं कृष्णो ददाति च॥
(नारदपाञ्चरात्र, द्वितीय रात्र, अध्याय – ०६, श्लोक – ११)
भगवान् शिव कहते हैं – सज्जन सदैव उन त्रिलोकपावनी राधाजी की सेवा करते हैं, जिसके चरण कमलों में स्वयं श्रीकृष्ण भक्तिपूर्वक नित्य अर्घ्य प्रदान करते हैं। सनत्कुमारसंहिता में कहते हैं – हे कृष्ण की स्वामिनी ! कृष्ण की प्राणभूता ! कृष्ण को मन को चुराने वाली ! भक्तों को अपना धाम देने वाली राधिके ! तुम मुझपर प्रसन्न हो –
राधे राधे च कृष्णेशे कृष्णप्राणे मनोहरे।
भक्तधामप्रदे देवि राधिके त्वं प्रसीद मे॥
(सनत्कुमारसंहिता)
नारदपाञ्चरात्र में ही कहते हैं – जैसे श्रीकृष्ण ब्रह्मस्वरूप हैं तथा प्रकृति से सर्वथा परे हैं, वैसे ही श्रीराधा भी ब्रह्मस्वरूपिणी, माया से निर्लिप्त तथा प्रकृति से परे हैं। श्रीकृष्णके प्राणोंकी जो अधिष्ठातृदेवी हैं, वे ही श्रीराधा हैं।
यथा ब्रह्मस्वरूपश्च श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः।
तथा ब्रह्मस्वरूपा च निर्लिप्ता प्रकृतेः परा॥
प्राणाधिष्ठातृदेवी या राधारूपा च सा मुने।
और कहते हैं,
सौभाग्यासु सुन्दरीषु राधा कृष्णप्रियासु च।
हनुमान्वानराणां च पक्षिणां गरुडो यथा॥
(नारदपाञ्चरात्र, प्रथम रात्र, अध्याय- ०१)
जैसे वानरों में हनुमान् और पक्षियों में गरुड सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाली सभी सौभाग्यवती स्त्रियों में राधाजी श्रेष्ठ हैं।
वस्तुतः राधा और कृष्ण में कोई भेद शास्त्रज्ञजन देखते ही नहीं हैं। जैसे दूध और उसकी सफेदी एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं, वैसे ही श्रीराधाकृष्ण को एक दूसरे से अभिन्न जानना चाहिए –
त्वं कृष्णाङ्गार्धसंभूता तुल्या कृष्णेन सर्वतः।
श्रीकृष्णस्त्वमयं राधा त्वं राधा वा हरिः स्वयम्॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय – १५)
वेदों और पुराणों में, कहीं भी राधा और कृष्ण में भेद नहीं बताया गया है –
त्वमेव राधा त्वं कृष्णस्त्वं पुमान्प्रकृतिः परा। राधामाधवयोर्भेदो न पुराणे श्रुतौ तथा॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय – ९४, श्लोक – ०५)
द्वारिका में जो शक्तिरूपा प्रकृति रुक्मिणी कहलाती हैं, वही वृन्दावन में राधाजी हैं।
रुक्मिणी द्वारवत्यान्तु राधा वृन्दावने वने॥
(मत्स्यपुराण, अध्याय – १३, श्लोक – ३८)
वृन्दावन में श्रीराधाजी की आठ प्रकृतियाँ हो जाती हैं, जिनमें नाम निम्न हैं –
अष्टौ प्रकृतयः पुण्याः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः।
प्रधानप्रकृतिस्त्वाद्या राधा चन्द्रावती समा॥
चन्द्रावली चित्ररेखा चन्द्रा मदनसुन्दरी।
प्रिया च श्रीमधुमती चन्द्ररेखा हरिप्रिया॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय – ७०, श्लोक – ०७-०८)
प्रधान प्रकृति श्रीराधाजी हैं। फिर उनके ही समान चन्द्रावती हैं। फिर चन्द्रावली, चित्ररेखा, चन्द्रा, मदनसुन्दरी, मधुमती, चन्द्ररेखा और प्रिया अथवा हरिप्रिया। श्रीगर्गसंहिता में बताया गया –
ये राधिकायां मयि केशवे मनाग् –
भेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौक्ल्यवत्।
त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति तद् –
अहैतुकस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः॥
(गर्गसंहिता, वृन्दावनखण्ड, अध्याय – १२, श्लोक – ३२)
दूध और उसकी श्वेत कान्ति की भांति जो लोग मुझ कृष्ण में और राधिका में भेद नहीं देखते हैं, अर्थात् एक ही समझते हैं, वे ही ज्ञानीजन ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं और वे ही हेतुरहित प्रगाढ़भक्तिके अधिकारी हैं। इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी कहा गया है –
योगेनात्मा सृष्टिविधौ द्विधारूपो बभूव सः।
पुमांश्च दक्षिणार्द्धाङ्गो वामाङ्गः प्रकृतिः स्मृतः॥ (ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय – १२, श्लोक – ०९)
परमात्मा श्रीकृष्ण सृष्टि रचनाके समय दो रूपवाले हो गये। दाहिने से पुरुष और बाएं से प्रकृति राधाजी हो गयीं। इसी बात को वेदों ने भी कहा –
राधया माधवो देवो माधवेन च राधिका विभ्राजन्ते जनेष्विति।
(आश्वलायनशाखा, ऋक्-परिशिष्ट)
स्वयं भगवान् ने अपने वात्सल्यवियोग में कष्ट पा रही यशोदाजी और नन्दबाबा को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हेतु राधाजी के पास भेजा है –
ज्ञानं मोक्षात्मकं सिद्धं परं निर्वाणकारणम्।
निवृत्तिमार्गमारूढं भक्तस्तत्रैव वाञ्छति॥
भक्त्यात्मकं च यज्ज्ञानं तुभ्यं राधा प्रदास्यति।
तस्यां च मानवं भावं त्यक्त्वा ज्ञानं करिष्यति॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय – ११०, श्लोक – १४-१५)
जो अधम लोग श्रीराधाकृष्ण में भेदबुद्धि करते हैं, उनका अपने पूर्वजों के साथ घोर नरक में पतन होता है। उनका वंशनाश होता है, वे विष्ठा के कीड़े बनते हैं और कालसूत्रादि भयङ्कर नरकों में यातना पाते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में कहते हैं –
राधामाधवयोर्भेदं ये कुर्वन्ति नराधमाः।
वंशहानिर्भवेत्तस्य पच्यन्ते नरकं चिरम्॥
यान्ति शूकरयोनिञ्च पितृभिः शतकैः सह।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां कृमयस्तथा॥
कुछ ऐसा ही मत गर्गसंहिता का भी है। भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं –
ये राधिकायां मयि केशवे हरौ
कुर्वन्ति भेदं कुधियो जना भुवि।
ते कालसूत्रं प्रपतन्ति दुःखिता
रम्भोरु यावत्किल चन्द्रभास्करौ ॥
(गर्गसंहिता, वृन्दावनखण्ड, अध्याय – १५)
वेदों की काण्वशाखा के सन्दर्भ में ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में कहते हैं कि श्रीकृष्ण की प्रिया राधिकाजी का जो लोग उपहास करते हैं, उनकी निन्दा करते हैं, वे कल्पपर्यन्त घोर नरकों में जाते हैं, विष्ठा के कीड़े बनते हैं, वेश्याओं की योनि के (गुप्तरोग के) कीड़े बनते हैं। उन्हें ब्रह्महत्या लगती है और उन्हें गर्म तेल में छाना जाता है, इसमें संशय नहीं है –
ये वा द्बिषन्ति निन्दन्ति पापिनश्च हसन्ति च।
कृष्णप्राणाधिकां देव देवीञ्च राधिकां पराम्॥
ब्रह्महत्याशतं ते च लभन्ते नात्र संशयः।
तत्पापेन च पच्यन्ते कुम्भीपाके च रौरवे॥
तप्ततैले महाघोरे ध्वान्ते कीटे च यन्त्रके।
चतुर्द्दशेन्द्रावच्छिन्नं पितृभिः सप्तभिः सह॥
ततः परमजायन्त जन्मैकं कोलयोनितः।
दिव्यं वर्षसहस्रञ्च विष्ठाकीटाश्च पापतः॥
पुंश्चलीनां योनिकीटास्तद्रक्तमलभक्षणाः।
मलकीटाश्च तन्मानवर्षञ्च पूयभक्षकाः।
वेदे च काण्वशाखायामित्याह कमलोद्भवः॥
श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के स्कन्ध – ०९, अध्याय – ०४ में तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय – ०४ में दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री को सृष्टिकाल में मूलप्रकृति के पांच रूपों के रूप में गिना गया है।
गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती।
सावित्री च सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता॥
इसका समर्थन महाभागवत आदि में भी मिलता है। नारदपुराण के पूर्वार्ध, अध्याय – ८३ में इन पांचों के पञ्चप्रकृतिमन्त्रकवचादि का निरूपण उपलब्ध है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय – ५६ में अलग से राधाकवच भी वर्णित है। अनेकानेक राधातन्त्र, सम्मोहनतन्त्रादि ग्रन्थों में नामावली और पूजापद्धतियों का भी व्यापक वर्णन है।
भगवान् शिव ने भी राधामन्त्र की दीक्षा ग्रहण की है। भगवान् नारायण ने उन्हें कहा है कि श्रीकृष्ण की प्रसन्नता चाहिए तो श्रीराधाजी की शरण में जाना ही होगा। यह बड़ा अद्भुत रहस्य है। कोई श्रीकृष्ण की शरणागति तो प्राप्त कर ले किन्तु राधाजी की कृपा न हो तो वह कभी श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकता है, अतः हे महादेव ! आप मेरे युगलमन्त्र का जप करें, इससे आप मुझे भक्तिपूर्वक वश में कर लेंगे –
यो मामेव प्रपन्नश्च मत्प्रियां न महेश्वर।
न कदापि स चाप्नोति मामेवं ते मयोदितम्॥
सकृदेव प्रपन्नोयस्तवास्मीति वदेदपि।
साधनेन विनाप्येव मामाप्नोति न संशयः॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मत्प्रियां शरणं व्रजेत्।
आश्रित्य मत्प्रियां रुद्र मां वशीकर्त्तुमर्हसि॥
इदं रहस्यं परमं मया ते परिकीर्तितम्।
त्वयाप्येतन्महादेव गोपनीयं प्रयत्नतः॥
त्वमप्येनां समाश्रित्य राधिकां मम वल्लभाम्।
जपन्मे युगलं मन्त्रं सदा तिष्ठ मदालये॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय – ८२, श्लोक – ८४-८८)
ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद एक स्वर से कहते हैं –
स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनृता॥
ऋग्वेद और सामवेद कहते हैं –
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते । पिबा त्वस्य गिर्वणः॥
वह एक ही ब्रह्मज्योति राधा और माधव, दो रूपों में हो गयी, ऐसा श्रीशिवजी कहते हैं –
तस्माज्ज्योतिरभूद्वेधा राधामाधवरूपकम्।
(सम्मोहनतन्त्र)
ब्रह्म का रसस्वरूप भी तैत्तरीय श्रुति बताती है – रसो वै सः। वह अनादिब्रह्म रसस्वरूप होकर अद्वितीय होता हुआ भी राधा और कृष्ण दो आनन्दमय लीलासिद्ध रूपों में कैसे हो जाता है, यह उपनिषत् बताते हैं –
रसिकानन्दस्य अनादिसंसिद्धा लीलाः भवन्ति। अनादिरयं पुरुष एक एवास्ति। तदेव रूपं द्विधा विधाय समाराधनतत्परोऽभूत् । तस्मात् तां राधां रसिकानन्दां वेदविदो वदन्ति।
(सामरहस्योपनिषत्)
श्रीमद्भागवत के रासप्रकरण में कहा कि भगवान् ऐसे लीला कर रहे थे जैसे कोई अपने प्रतिबिम्ब के साथ हो। राधिकोपनिषत् में वेद यही कहते हैं कि एक होकर राधा और कृष्ण क्रीडालीला के निमित्त रसपूर्ण दो स्वरूपभेद से छायावत् हो जाते हैं, जिनके बारे में सुनकर और पढ़कर व्यक्ति परमधाम जाता है।
येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धि –
र्देहेनैकः क्रीडनार्थं द्विधाऽभूत्।
देहो यथा छायया शोभमानः
शृण्वन् पठन् याति तद्धाम शुद्धम् ॥
(श्रीराधिकोपनिषत् – १२)
ये श्रीराधामाधव ही साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमामृतस्वरूप परब्रह्म हैं –
परब्रह्मसच्चिदानन्दराधा कृष्णयोः परस्परसुखाभिलाषरसास्वादन इव तत्सच्चिदानन्दामृतं कथ्यते॥
(राधोपनिषत्)
जैसे अग्निज्वाला से चिंगारी का निकलना, पुनः उससे महाज्वाला का बनना देखा जाता है, वैसे ही सब देवों में सभी अन्य शक्तियाँ निहित होती ही हैं।
स एवायं पुरुषः स्वरमणार्थं स्वस्वरूपं प्रकटितवान्।
सर्वे आनन्दरसा यस्मात् प्रकटिता भवन्ति। आनन्दरूपेषु पुरुषोऽयं रमते। स एवायं पुरुषः समाराधनतत्परोऽभूत्। तस्मात् स्वयमेव समाराधनमकरोत्। अतो लोके वेदे च श्रीराधा गीयते॥
(सामरहस्योपनिषत्)
उन राधाजी का उसी इस पुरुष (माधव) ने अपने रमण के लिये अपने अन्दर से निज मूलस्वरूप को प्रकट किया। अतः वेदों के अनुसार भी मूलप्रकृति राधाजी श्रीकृष्ण से कदापि भिन्न नहीं हैं। अथर्ववेद में कहते हैं कि भगवान् बलरामजी को जिज्ञासा हुई कि ये श्रीकृष्ण का तत्त्वरूप क्या है ? तब उन्होंने ज्ञानबुद्धि से चिन्तन किया –
गोकुलाढ्ये माथुरमण्डले वृन्दावनमध्ये सहस्रदलपद्मे षोडशदलमध्ये अष्टदलकेसरे गोविन्दोऽपि श्यामपीताम्बरो द्विभुजो मयूरपिच्छशिराः वेणुवेत्रहस्तो निर्गुणः सगुणो निराकारः साकारो निरीहः स चेष्टते विराजत इति । पार्श्वे राधिका चेति ।
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राधाकृष्णयोः एकमासनम्। एका बुद्धिः। एकं मनः। एकं ज्ञानम्। एक आत्मा। एकं पदम्। एका आकृतिः। एकं ब्रह्म।
(अथर्ववेदीय पुरुषबोधिनी राधोपनिषत् श्रुति)
उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार आदि दिव्यतम स्वरूपों का दर्शन किया, जहाँ उनके बगल में श्रीराधाजी थीं। उन्होंने जाना कि श्रीराधाकृष्ण का आसन, बुद्धि, मन, ज्ञान, आत्मा, पद, आकृति और ब्रह्मतत्त्व एक ही है, भिन्न नहीं। वेदमन्त्रों ने विचार किया और कहा –
सर्वाणि राधिकाया दैवतानि सर्वाणि भूतानि राधिकायास्तां नमामः।
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जगद्भर्तुर्विश्वसम्मोहनस्य श्रीकृष्णस्य प्राणतोऽधिकामपि। वृन्दारण्ये स्वेष्टदेवीञ्च नित्यं तां राधिकां वनधात्रीं नमामः॥
(अथर्ववेदीय राधिकातापनीयोपनिषत्)
सभी देवता श्रीराधाजी के ही आश्रय से हैं। सभी प्राणी राधाजी के ही आधार से हैं, ऐसी राधिका को हम प्रणाम करते हैं। फिर आगे कहा, जो विश्व का पालन और सम्मोहन करने वाले श्रीकृष्ण की प्राणों से भी अधिक प्यारी हैं, वृन्दावन में रहने वाली उन इष्टदेवी वनदेवी राधिका को हम नित्य प्रणाम करती हैं।
श्रीरूपगोस्वामीजी ने उज्ज्वलनीलमणि में लिखा है –
ह्लादिनी या महाशक्तिः सर्वशक्तिवरीयसी ।
तत्सारभावरूपेयमिति तन्त्रे प्रतिष्ठिता॥
सुष्ठुकान्तस्वरूपेयं सर्वदा वार्षभानवी।
धृतषोडशशृङ्गारा द्वादशाभरणान्विता॥
(उज्ज्वलनीलमणि, ०४/६-७)
जो सभी शक्तियों में श्रेष्ठ आह्लादिनी शक्ति है, उसका ही सारभूत राधाजी हैं, ऐसा तन्त्रमत है। यह वृषभानुजा सदैव अपने स्वामी को प्रिय लगने वाले सोलह शृंगार एवं बारह आभूषणों से सज्जित रहती हैं।
श्रीरूपगोस्वामीजी ने जो वर्णन किया है, वही ऋग्वेद में भी वर्णित है –
आह्लादिनीसन्धिनीज्ञानेच्छाक्रियाद्या बहुविधः शक्तयः। तास्वाह्लादिनी वरीयसी परमान्तरङ्गभूता राधा। कृष्णेन आराध्यत इति राधा, कृष्णं समाराधयति सदेति राधिका।
(ऋग्वैदिक राधोपनिषत्)
ब्रह्म की आह्लादिनीशक्ति, सन्धिनीशक्ति, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति आदि बहुत प्रकार की शक्तियाँ हैं। उनमें सर्वश्रेष्ठ शक्ति आह्लादिनी है, जो उनकी परम अन्तरङ्ग अङ्गीभूता राधाजी हैं। कृष्ण के द्वारा जिनकी आराधना हो, वह राधा हैं और जो सदैव कृष्ण की आराधना करें, वह राधा हैं।
अतः अज्ञानपक्षीय भ्रम या अश्रद्धा के कारण जिन सनातनी बन्धुओं ने श्रीराधाजी को विधर्मियों का षड्यन्त्र समझकर उनका उपहास किया, उनकी निन्दा की, उनके अस्तित्व को नहीं माना, उन्हें चाहिए कि आगे से श्रीराधाकृष्ण में अभेदबुद्धि की श्रद्धा रखते हुए पद्मपुराण के निम्न वचनों से अपने उद्धार हेतु प्रार्थना करें –
संसारसागरान्नाथौ पुत्रमित्रगृहाकुलात्।
गोप्तारौ मे युवामेव प्रपन्नभयभञ्जनौ॥
योऽहं ममास्ति यत्किञ्चिदिह लोके परत्र च।
तत्सर्वं भवतोरद्य चरणेषु समर्पितम्॥
अहमस्म्यपराधानामालयस्त्यक्तसाधनः।
अगतिश्च ततो नाथौ भवन्तावेव मे गतिः॥
तवास्मि राधिकाकान्त कर्मणा मनसा गिरा।
कृष्णकान्ते तवैवास्मि युवामेव गतिर्मम॥
शरणं वां प्रपन्नोऽस्मि करुणानिकराकरौ।
प्रसादं कुरुतं दास्यं मयि दुष्टेऽपराधिनि॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय – ८२, श्लोक – ४२-४६)
हे नाथ ! स्त्री, पुत्र, मित्र और घरसे भरे हुए इस बन्धनरूपी संसारसागरसे आप ही दोनों मुझको बचानेवाले हैं। आप ही शरणागतके भयका नाश करते हैं। मैं जो कुछ भी हूँ और इस लोक तथा परलोक में मेरा जो कुछ भी है, वह सभी आज मैं आप दोनों के चरणकमलों में समर्पण कर रहा हूँ। मैं अपराधों का भंडार हूँ। मेरे अपराधों का पार नहीं है। मैं सर्वथा साधनहीन हूँ, गतिहीन हूँ । इसलिये नाथ ! एकमात्र आप ही दोनों प्रिया-प्रियतम मेरी गति हैं। श्रीराधिकाकान्त श्रीकृष्ण ! और श्रीकृष्णकान्ते राधिके ! मैं तन -मन-वचनसे आपका ही हूँ और आप ही मेरी एकमात्र गति हैं। मैं आपके शरण हूँ, आपके चरणों पर पड़ा हूँ। आप दोनों अखिल कृपा के खान हैं। कृपापूर्वक मुझपर दया कीजिये और मुझ दुष्ट अपराधी को अपना तुच्छ दास बना लीजिये।
अन्त में भगवान् परशुरामजी के भावपूर्ण वचनों के साथ मैं लेख को पूर्ण करता हूँ –
या राधा जगदुद्भवस्थितिलयेष्वाराध्यते वा जनैः
शब्दं बोधयतीशवक्त्रविगलत्प्रेमामृतास्वादनम् ।
रासेशी रसिकेश्वरी रमणदृन्निष्ठा निजानन्दिनी
नेत्री सा परिपातु मामवनतं राधेति या कीर्त्यते॥
(ब्रह्माण्डपुराण, मध्यभाग, अध्याय – ४३, श्लोक – ०८)
जो राधा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के समय लोगों के द्वारा आराधिता होती हैं, अपने स्वामी के मुखारविन्द से निर्गत शब्दरूपी प्रेमामृत का आस्वादन करती हैं, महारास की नायिका, रसिकों की स्वामिनी, सदैव अपने स्वामी की ओर दृष्टि रखने वाली, अपने आनन्द में मग्न, भक्तों का नेतृत्व करने वाली वह देवी सदैव मेरी रक्षा करें, जिन्हें राधा कहा जाता है।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru

By MINIMETRO LIVE

Minimetro Live जनता की समस्या को उठाता है और उसे सरकार तक पहुचाता है , उसके बाद सरकार ने जनता की समस्या पर क्या कारवाई की इस बात को हम जनता तक पहुचाते हैं । हम किसे के दबाब में काम नहीं करते, यह कलम और माइक का कोई मालिक नहीं, हम सिर्फ आपकी बात करते हैं, जनकल्याण ही हमारा एक मात्र उद्देश्य है, निष्पक्षता को कायम रखने के लिए हमने पौराणिक गुरुकुल परम्परा को पुनः जीवित करने का संकल्प लिया है। आपको याद होगा कृष्ण और सुदामा की कहानी जिसमे वो दोनों गुरुकुल के लिए भीख मांगा करते थे आखिर ऐसा क्यों था ? तो आइए समझते हैं, वो ज़माना था राजतंत्र का अगर गुरुकुल चंदे, दान, या डोनेशन पर चलती तो जो दान देता उसका प्रभुत्व उस गुरुकुल पर होता, मसलन कोई राजा का बेटा है तो राजा गुरुकुल को निर्देश देते की मेरे बेटे को बेहतर शिक्षा दो जिससे कि भेद भाव उत्तपन होता इसी भेद भाव को खत्म करने के लिए सभी गुरुकुल में पढ़ने वाले बच्चे भीख मांगा करते थे | अब भीख पर किसी का क्या अधिकार ? आज के दौर में मीडिया संस्थान भी प्रभुत्व मे आ गई कोई सत्ता पक्ष की तरफदारी करता है वही कोई विपक्ष की, इसका मूल कारण है पैसा और प्रभुत्व , इन्ही सब से बचने के लिए और निष्पक्षता को कायम रखने के लिए हमने गुरुकुल परम्परा को अपनाया है । इस देश के अंतिम व्यक्ति की आवाज और कठिनाई को सरकार तक पहुचाने का भी संकल्प लिया है इसलिए आपलोग निष्पक्ष पत्रकारिता को समर्थन करने के लिए हमे भीख दें 9308563506 पर Pay TM, Google Pay, phone pay भी कर सकते हैं हमारा @upi handle है 9308563506@paytm मम भिक्षाम देहि

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