गणेशोत्सव: अपने ज्ञान और बुद्धि भाव का दर्शन कीजिएगणेशोत्सव: अपने ज्ञान और बुद्धि भाव का दर्शन कीजिए

लेखक: अवधेश झा

ब्रह्म के विभिन्न प्रकट स्वरूप में शिव और गौरी पुत्र गणेश जी विघ्न विनाशक और ज्ञान, बुद्धि प्रदाता हैं। इसलिए, वैदिक कर्मकांड में इनका प्रमुख स्थान है। जीवन का शुभारंभ हो, या विद्या शुभारंभ, विवाह, व्यापार आदि समस्त मांगलिक कार्यों का शुभारंभ श्री गणेश जी से ही होता है। आपके जीवन में जो “ज्ञान और बुद्धि” का विस्तार है, वह गणेश जी ही है।

जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना) से जब मैंने श्री गणेश जी के संबंध में पूछा तो उन्होंने कहा, “श्री गणेश जी हम सभी के जीवन का मांगलिक उत्सव है तथा ब्रह्म भाव में उत्पति, स्थिति और प्रलय का शुभारंभ हैं। इसलिए, अपने स्वरूप से ज्ञान और बुद्धि प्रदाता गणेश जी को प्रकट कीजिए और शुभ संकल्पों का शुभारंभ कीजिए। जीवन का सबसे “शुभ” संकल्प “ज्ञान” ही है और बुद्धि इसे विस्तार देता है। यह ज्ञान आपके सांसारिक स्थिति को और भी उन्नत बनाता है तथा ब्रह्मोन्मुख होकर स्वरूप की स्थिति प्रदान करता है।”

वास्तव में, जीवन में ज्ञान और बुद्धि ही एक ऐसा उचित माध्यम है। जिसके द्वारा जीवन को सफल और सार्थक बनाया जा सकता है। यहां ज्ञान और बुद्धि एक दूसरे के बिना निरर्थक है। ज्ञान अगर अर्जुन का गांडीव है तो उसका प्रयोग ही बुद्धि है तथा ज्ञान अगर महारथी है, तो बुद्धि ही उसका सारथी है। जीवन का समस्त विघ्न – बाधा बुद्धि के स्तर से ही प्रारंभ होता है और बुद्धि के स्तर पर ही इसे दूर किया जा सकता है। बुद्धि में छल कपट और प्रपंच का भाव होने से बुद्धि दूषित हो जाता है और उसे पग पग पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता है तथा इसी बुद्धि पर आत्मा की प्रकाश स्वरूप में सत्य एवं शुभ भाव का उदय होता है तो शुभ संकल्पों की प्राप्ति होती है और श्री गणेश हमेशा सहायक होते हैं।
श्रीगणेश जी का प्रारब्ध ही शिवजी के “ब्रह्म ज्ञान” की सर्वज्ञता भाव से है। इसलिए, गणेश जी बाल्य काल से ही “ज्ञानी और बुद्धिमान” और कालातीत है। श्री गणेश जी देवताओं में सबसे ज्ञानी और विघ्न विनाशक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। एक बार सभी देवता ने श्रेष्ठता सिद्ध करने लिए ब्रह्मांड परिक्रमा का आयोजन किया और यह निर्धारित हुआ कि जो सबसे पहले परिक्रमा पूर्ण कर लौटेंगे, उन्हें “ज्ञान श्रेष्ठ देव” की उपाधि प्रदान किया जाएगा। सभी परिक्रमा में चले गए और श्री गणेश जी अपने माता पिता की ही परिक्रमा पूर्ण कर; ब्रह्मांड परिक्रमा पूर्ण कर अपने सुक्ष्म बुद्धि का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किए और उपाधि प्राप्त किए।

वास्तव में, शिव ब्रह्म स्वरूप पुरुष हैं, जो इस ब्रह्मांड के आधार हैं और पार्वती प्रकृति की ब्रह्म चेतन भाव हैं। इन दोनों की परिक्रमा के उपरांत क्या शेष रह जाएगा। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रकृति और पुरुष ही है और पुरुष श्रेष्ठ शिव हैं, प्रकृति की चेतना पार्वती है। यह “ब्रह्म ज्ञान” श्रीगणेश को था और उन्होंने ऐसा ही किया। उनका वाहन “मूषक” जो बुद्धि का दूत है। यही आपको जानकारी देते रहता है, सही और गलत का; क्योंकि यहीं अपना विवेक सक्रिय रखना आवश्यक है। अपने विवेक भाव में श्री गणेश जी को साथ रखिए, समस्त विघ्नों का नाश होता जायेगा।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

श्रीगणेश जी के इस प्रार्थना के माध्यम से उनका ब्रह्मांड स्वरूप और सर्वज्ञता तथा तीनों काल के विघ्नहर्ता का भाव प्रकट होता है। सूक्ष्मता से देखेंगे तो ज्ञात होगा कि साधन, साध्य और विघ्न; तीनों गुणों ही तरह है। जिसमें “साध्य” रूपी लक्ष्य आपका “आत्म स्थिति” है जोकि अंतिम “सत्य” है। साधन आपका गुण है; “साधन” अगर “सतोगुण” की विशेषता में है तो “साध्य” की प्राप्ति निश्चित है, इसमें आपका “रजोगुण” और “तमोगुण” बाधक बन सकता है।

लेकिन, आप लक्ष्य अवश्य प्राप्त करेंगे। “साधन” अगर रजोगुण है, तो प्राप्ति रजोगुण की होगी और विशेष परिस्थिति में सत्य से संयुक्त होकर सतोगुण तक भी जा सकता है। इसमें, तमोगुण विघ्न उत्पन्न करता है। “साधन” अगर तमोगुण है, तो तमोगुण तक ही प्राप्ति होगी। लेकिन, विशेष परिस्थिति में जिस गुण के साथ संयुक्त होंगे उसकी प्राप्ति होगी। अब, यह आप पर निर्भर करता है कि आप क्या इच्छा या विचार रखते हैं; संसार का या ब्रह्म की? श्रीगणेश स्वरूप स्थिति में सम्पूर्ण वेद, उपनिषद को संकलन और संपादन करने में महर्षि व्यास को सहायता किए। क्योंकि, समस्त श्रुति उनके स्मृति में ही स्थित थी। ऐसे ब्रह्म ज्ञानी, ब्रह्म बुद्धि के ज्ञाता श्रीगणेश जी को कोटि नमन।

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