पूरी दुनिया में ऐसा कभी भी, कहीं भी नहीं हुआ कि जो शोषक है उसकी आबादी घटती जाए और जो शोषित-वंचित-पीड़ित समुदाय हैं, उनकी आबादी बढ़ती जाए। ऐसा होता हुआ सिर्फ और सिर्फ तब दिखता है जब कोई भारत की 1872 से 1941 के बीच यानि फिरंगियों के दौर के सेन्सस देख लेता है। वो गुलामी का दौर था तो उस वक्त हुक्मरान अपने अधीनस्थ जन को आंकड़े दिखा भी देते थे तो कोई ख़ास अंतर नहीं पड़ता था। अब तो ऐसा आंकड़ा दिखा देने पर बड़े-बड़े तथाकथित समाजवादी भी इस फटे की रफ्फु नहीं कर पाएंगे।
यही वजह है कि मेरा मानना होता है कि जिसे बिहार में जातिगत जनगणना के बाद बिहार सरकार ने आंकड़े जानता को नहीं बताये, बिलकुल वैसे ही छप्पन इंची वाली दिल्ली की सरकार बहादुर और उसके कारकूनों भी जातिगत जनगणना करवाने के बाद पूरी सेन्सस रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं करेंगे। मजाल ही नहीं है उतनी! इसलिए बिहार के जातिगत सर्वेक्षण वाला हमारा दावा कायम है – “जातिगत जनगणना करवाएंगे, मगर आंकड़े नहीं बताएँगे।” अगर आंकड़े बताने हुए तो उसके लिए भी पाकिस्तानी या किसी आतंकी हमले जैसा मौका ढूंढना होगा जब राष्ट्रवाद की भावना प्रबल हो और कोई आंकड़ों पर सवाल न उठा सके।
इस दौर के आंकड़े देखने पर पता चलता है कि 1872 से 1941 के बीच हिन्दुओं की आबादी 73 प्रतिशत से घटकर 66 प्रतिशत की ओर जा रही है और तथाकथित सताए जा रहे, अल्पसंख्यकों की आबादी बढ़ती जा रही है। मुहम्मडेन 21 से 23 प्रतिशत हो चले। बौद्धों की आबादी करीब 1.5% से बढ़कर 1931 तक 3.6% पर पहुंची मगर 1941 में वो 0.06% पर इसलिए आती दिख रही है क्योंकि 1 अप्रैल 1937 को बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया था। उसके अलावा बौद्ध धर्म में धर्म परिवर्तन, इस्लाम कबूलने से पहले का चरण होता है, इसलिए भी ये कमी होती दिखती है। यानी थोड़े भी समझदार लोग (पढ़े-लिखे) इसका आरोप हिन्दुओं पर नहीं लगायेंगे (वामी टुकड़ाखोर कर सकते हैं)।

राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना का भी परिणाम करीब-करीब वही होगा जो परिणाम बिहार में हुआ है। कुछ ही दिन पहले पटना में “पान रैली” थी जिसे आईपी गुप्ता ने आयोजित किया था। ये तांती-तंतवा समुदाय का शक्ति प्रदर्शन था जिसमें एक नए राजनैतिक दल “इंडियन इंकलाब पार्टी” शुरू किये जाने की घोषणा भी हुई। जातिगत जनगणना में पता चल चुका है कि मुसहर समुदाय 3% यानी लगभग पासवान समुदाय जितना ही गिनती में है और इसे पकड़ने के लिए प्रशांत किशोर ने अपनी “जन सुराज पार्टी” का मुखिया मुसहर समुदाय का बनाया। जीतन राम मांझी पहले ही इस समुदाय के नेता होने की दावेदारी ठोकते हैं। शिवदीप लांडे (भूतपूर्व आईपीएस अधिकारी) ने जब अपनी “हिन्द सेना” नामक पार्टी बनाई तो प्रशांत किशोर जैसी पार्टी है कहकर बिहार में “पांडे बनाम लांडे” की चौक-चौबारे पर बहसें भी हुई।
जद (यू) में कभी नंबर दो पर रहे प्रशांत किशोर ने ही पार्टी नहीं बनाई है, आरसीपी सिंह भी कभी उसी पार्टी में नंबर दो थे और उन्होंने अपनी “आप सबकी आवाज” नामकी पार्टी बना दी है। सिमांचल के इलाकों में मुहम्मडेन आबादी 30% से ऊपर हो चुकी है इसलिए पुर्णिया, कटिहार, अररिया और किशनगंज से ओवैसी के उम्मीदवार भी अपनी दावेदारी ठोकते हैं और जीतते भी हैं। ये अलग बात है कि बाद में ओवैसी की पार्टी के विधायकों को फोड़कर राजद अपने में मिला ले गयी थी। पिछली बार तीन-चार सीटों के साथ बिहार में निषाद या केवट-मल्लाह समुदाय का प्रतिनिधित्व करने “विकासशील इंसान पार्टी” उर्फ़ वीआईपी भी दिखी थी। सत्ताधारी बड़े दलों राजद और जद (यू) ने उनकी जैसी बेइज्जती की, उसके बाद मानना चाहिए कि इस बार भी वो चुनावों में मैदान में होंगे। तीन प्रतिशत के लगभग पासवान समुदाय और उसी बहाने पूरे एससी/एसटी वोटों पर अधिकार जताने के लिए चिराग पासवान भी हैं।
इतने पर अभी रुकने की जरुरत नहीं है क्योंकि आने वाले दिनों में बिहार में “कुर्मी एकता रैली”, “कोयरी आक्रोश रैली”, “तेली हुंकार रैली” और “धोबी अधिकार रैली” के आयोजित होने की पक्की खबर है। बिहार के जातिगत जनगणना के मुताबिक बिहार में कुर्मी करीब 2.9% हैं, कोयरियों की जनसँख्या 4.21%, तेली 2.81% और धोबी केवल 0.83% हैं। अब ब्राह्मण 3.65 प्रतिशत हैं, ये सुनने में कैसा लगता है? जनसँख्या यानी चुनावों को प्रभावित करने की दृष्टि से ये संख्या कम लगती है क्या? बिहार में ब्राह्मणों से जनसँख्या में ऊपर केवल चार जातियाँ हैं – यादव 14.26 प्रतिशत हैं, फिर दुसाध या पासवान जो 5.31 प्रतिशत हैं, रविदास हैं 5.2 प्रतिशत और कोइरी जो कि 4.21 प्रतिशत हैं। उसके बाद राजपूत 3.45 प्रतिशत फिर मुसहर 3.08 प्रतिशत, उसके बाद कुर्मी 2.87 प्रतिशत, भूमिहार 2.86 प्रतिशत, एक अलग पार्टी वीआईपी खड़ी करने वाले मल्लाह केवल 2.6 प्रतिशत और बनिया 2.31 प्रतिशत हैं। शहरी कहलाने वाले इलाकों में कायस्थ 0.60 प्रतिशत होते हैं।
पूरे भारत की बात करें तो “जातिगत जनगणना करवाएंगे, मगर आंकड़े नहीं बताएँगे” वाली नीति का पालन करते हुए कांग्रेसी नेतृत्व वाली सरकार ने 2011 में जो सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस करवाया उसमे जाति को छोड़ कर सभी आँकड़े 2016 में प्रकाशित हुए। जाति के आंकड़े सामाजिक कल्याण मंत्रालय को सौंपे गए, जिसके बाद एक एक्सपर्ट ग्रुप बना, लेकिन उसके बाद आँकड़ों का क्या हुआ, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई। सीएए/एनआरसी पर सड़क जाम और दंगे हों, कृषि कानूनों में बदलाव के बाद दिल्ली में हुई हिंसा हो, कई मामलों में हमलोग मोदी सरकार की हिम्मत तो देख ही चुके हैं। “तपस्या में कुछ कमी रह गयी होगी” कहकर इसका आंकड़ा भी टाला ही जा सकता है। बाकी नहीं टाला तो जो नतीजे आयेंगे, वो तो बिहार के आधार पर समझ में आ ही गए होंगे?