तब 2005 का झारखण्ड का चुनाव संपन्न हुआ ही था और चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी (बहुत बड़े अंतर से) और उसे बहुमत का समर्थन प्राप्त था | इसके बाद भी यूपीए काल के राज्यपाल ने जेएमएम को सीएम पद पर बिठा दिया | मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया | उस समय, लोकसभा अध्यक्ष थे कम्युनिस्ट नेता सोमनाथ चटर्जी जो न्यायपालिका के कथित रूप से विधायिका में हस्तक्षेप करने की हिम्मत करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से बहुत नाराज हुए थे। क्या उस समय किसी बुद्धिजीवी ने सोमनाथ चटर्जी का मजाक उड़ाने की हिम्मत की थी? नहीं साहब, जब कम्युनिस्ट सोमनाथ चटर्जी ने सर्वोच्च न्यायलय को लक्ष्मणरेखा पार न करने की हिदायत दी तो सेक्युलर-लिबरल कहलाने वाली जमातों में सन्नाटा छाया रहा | यानी लोकसभा के अध्यक्ष तो सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना कर सकते हैं लेकिन राज्यसभा के सभापति (उपराष्ट्रपति) नहीं कर सकते!
सोमनाथ चटर्जी मामले में हुआ क्या था?
दस बार एमपी रहे कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता सोमनाथ चटर्जी को वामपंथी नेता ज्योति बसु का करीबी माना जाता था | वो यूपीए (प्रथम) की सरकार के दौरान 2004 में निर्द्वंद लोकसभा अध्यक्ष पद पर चुने गए | उस समय प्रकाश कारत सीपीएम के मुखिया थे और जब जुलाई 2008 में सीपीएम ने सरकार से समर्थन वापस भी लिया तो भी सोमनाथ चटर्जी ये कहकर लोकसभा अध्यक्ष पद पर बने रहे कि लोकसभा अध्यक्ष का पद पार्टी-पॉलिटिक्स से ऊपर होता है | इसके बाद 23 जुलाई 2008 को सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया गया था | अपने कम्युनिस्ट (मार्क्सवादी) नेता के रूप में लोकसभा अध्यक्ष रहने के ही दौर में 2005 में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय पर वो टिप्पणी की थी जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है |
सोमनाथ चटर्जी को सांसदों द्वारा पैसे-पर-सवाल उठाने के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने नोटिस भेजा था | उसी दौर में झारखण्ड वाली घटना भी हुई थी और सोमनाथ चटर्जी ने कहा था कि “सर्वोच्च न्यायालय लक्ष्मणरेखा पार कर रहा है” | इसमें एक विचित्र बात तो ये है कि आजीवन कम्युनिस्ट रहे, हिन्दू देवी-देवताओं को न मानने वाले कट्टरपंथी को भी जब उदाहरण देने होते हैं, तो उसे पौराणिक रामायण के उदाहरणों में ही बात करनी होती ही | ये आपको नामों में भी दिख जायेगा कि अधिकांश कम्युनिस्ट नेताओं के नाम पौराणिक हिन्दू पात्रों के ही नाम होते हैं | लोकसभा अध्यक्ष के रूप में सोमनाथ चटर्जी ने सर्वोच्च न्यायालय का नोटिस मानने, या उसे स्वीकार करके सुप्रीमकोर्ट में हाजिरी देने से भी साफ मना कर दिया था | अपने एक इंटरव्यू में सोमनाथ चटर्जी ने बाद में कहा था, “मैं कठपुतली नहीं हूं…. मेरा मुद्दा बहुत सरल है। संवैधानिक रूप से हमारा कामकाज अनुच्छेद 122 के अंतर्गत आता है और मैं सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों (विधानसभा को) को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरे हिसाब से सर्वोच्च न्यायालय ने लक्ष्मण रेखा पार कर ली है। मेरे लिए संविधान सर्वोच्च है। न तो विधानमंडल और न ही सुप्रीम कोर्ट संविधान से ऊपर है। … मैं अपने क्षेत्र में सर्वोच्च हूं और अदालतें अपने क्षेत्र में सर्वोच्च हैं। लेकिन इस मामले को ‘विधानसभा बनाम न्यायपालिका’ के रूप में पेश करना एक कृत्रिम रूप से बनाया गया विवाद है।“ जब सोमनाथ चटर्जी जैसे यूपीए समर्थक सुप्रीम कोर्ट के पीछे पड़े थे, तो बुद्धिजीवी और आज सुप्रीमकोर्ट की अवमानना पर छाती कूटने वाले सिर्फ बैठकर देख रहे थे।
उप-राष्ट्रपति ने कहा क्या है?
उप-राष्ट्रपति ने प्रश्न किया कि क्या हम ऐसे हालात में आ गए कि समय के साथ यह बात चली जाएगी? लोगों के दिल पर इस घटना से गहरी चोट लगी है, लोगों का विश्वास डगमगा गया है। हाल ही में एक मीडिया हाउस ने एक सर्वेक्षण किया था, जिसमें संकेत मिला था कि न्यायपालिका में लोगों का विश्वास कम हो रहा है। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इसके तीन बुनियादी स्तंभ- विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका, पारदर्शी और जवाबदेह हों। वे आम लोगों के लिए अनुकरणीय उच्चतम मानकों का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इसलिए, समानता के सिद्धांत, कानून के समक्ष समानता की अवहेलना की गई है। यह हमारे लोकतंत्र का मूल है। अब समय आ गया है कि हम इसे लागू करें।
इस मामले की जांच तीन जजों की समिति कर रही है, लेकिन जांच कार्यपालिका का क्षेत्र है। जांच न्यायपालिका का क्षेत्र नहीं है। क्या यह समिति भारत के संविधान के अधीन है? नहीं। क्या तीन जजों की इस समिति को संसद से पारित किसी कानून के तहत कोई मंजूरी प्राप्त है? नहीं। समिति अधिक से अधिक सिफारिश कर सकती है। हमारे पास जजों के लिए जिस तरह का तंत्र है, उसमें संसद ही एकमात्र कार्रवाई कर सकती है। एक महीना बीत चुका है। जांच के लिए तेजी, शीघ्रता और साक्ष्य आदि को सुरक्षित रखने की आवश्यकता होती है। देश के नागरिक होने के नाते और जिस पद पर मैं हूं, मैं चिंतित हूं। क्या हम कानून के शासन को कमजोर नहीं कर रहे हैं? क्या हम ‘जनता’ के प्रति जवाबदेह नहीं हैं, जिन्होंने हमें संविधान दिया? उप राष्ट्रपति ने सभी संबंधित लोगों से आग्रह किया कि वे इसे एक परीक्षण मामले के रूप में देखें। उन्होंने आगे भी प्रश्न जारी रखे – इस समिति के पास क्या वैधता और अधिकार क्षेत्र है? क्या हम एक वर्ग द्वारा बनाए गए कानून और उस वर्ग द्वारा बनाए गए कानून को संविधान से अलग संसद से अलग रख सकते हैं? मेरे अनुसार, समिति की रिपोर्ट में स्वाभाविक रूप से कानूनी स्थिति का अभाव है।
बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने ये भी याद दिलाया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति अनुच्छेद 124 के तहत होती है जिसमें “परामर्श” शब्द का इस्तेमाल किया गया। उन्होंने बल दिया कि परामर्श का मतलब सहमति नहीं है। परामर्श परामर्श है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने डॉ. बी.आर. अंबेडकर को उद्धृत करते हुए कहा, “मुख्य न्यायाधीश को व्यावहारिक रूप से न्यायाधीश की नियुक्ति पर वीटो की अनुमति देना वास्तव में मुख्य न्यायाधीश को अधिकार हस्तांतरित करना है जिसे हम राष्ट्रपति या तत्कालीन सरकार में निहित करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए मुझे लगता है कि यह भी एक खतरनाक प्रस्ताव है।” लेकिन 1993 में दूसरे न्यायाधीश के मामले में, अदालत ने परामर्श की व्याख्या सहमति के रूप में की। दोनों शब्द अलग-अलग हैं लेकिन पीठ ने यह नहीं देखा कि भारतीय संविधान एक ही अनुच्छेद में परामर्श और सहमति इन शब्दों का उपयोग करता है।
उप-राष्ट्रपति ने याद दिलाया कि संसद किसी अदालत के फैसले को नहीं लिख सकती। संसद केवल कानून बना सकती है और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका सहित संस्थाओं को जवाबदेह ठहरा सकती है। न्यायालय का एकमात्र विशेषाधिकार है निर्णय लिखना, निर्णय लेना, जितना कि कानून बनाना संसद का है, लेकिन अक्सर हम देख रहे हैं कि कार्यकारी शासन न्यायिक आदेशों द्वारा होता है। जब सरकार लोगों द्वारा चुनी जाती है, तो वह संसद के प्रति जवाबदेह होती है। सरकार चुनाव में लोगों के प्रति जवाबदेह होती है। जवाबदेही का एक सिद्धांत लागू होता है। संसद में, आप सवाल पूछ सकते हैं, क्योंकि शासन कार्यपालिका द्वारा होता है। लेकिन अगर यह कार्यकारी शासन न्यायपालिका द्वारा है, तो आप सवाल कैसे पूछेंगे? आप चुनाव में किसे जवाबदेह ठहराएंगे?
विधानमंडल, न्यायपालिका और कार्यपालिका अपने-अपने क्षेत्र में काम करें, ये याद दिलाने से भी उप-राष्ट्रपति चूके नहीं। किसी एक द्वारा दूसरे के क्षेत्र में कोई भी अतिक्रमण चुनौती पेश करता है, जो अच्छा नहीं है। यह संतुलन को बिगाड़ सकता है। इन तीनों के बीच अधिकार के प्रदर्शन की जो मौजूदा होड़ सी दिख रही है, उसे लोकतंत्र के लिए अच्छा तो नहीं ही कहा जा सकता। अब सवाल ये है कि इतने तीखे बयान के बाद भी न्यायपालिका क्या नींद से जागेगी? इसका उत्तर समय के गर्भ में है लेकिन आम राय पूछें तो जनता को कोई विशेष उम्मीद तो नहीं ही है!