नीरज बधवार का लेख

देखिए, किसी भी पेचीदा समस्या पर लिखते या बोलते वक्त अगर आपकी प्राथमिकता समस्या को ईमानदारी से समझने के बजाए उसके निष्कर्षों से निकलने वाले पब्लिक रिएक्शन की होती है तो आप कभी भी समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पाएंगे। पहलगाम वाले हादसे के बाद जिस तरह के निष्कर्ष और टिप्पणियां मैं देख रहा हूं उसमें ये द्वंद्व साफ दिखाई देता है। लोग कैसे मारे गए, क्यों मारे गए, मारने वाले कौन थे, किस विचार से प्रभावित थे इसके बजाए कुछ लोगों की चिंता ये है कि उससे किसी एक वर्ग की छवि खराब तो नहीं हो जाएगी। उससे किसी पार्टी को फायदा तो नहीं हो जाएगा।

अगर आप ये चिंता पालकर समस्या पर अनुसंधान कर रहे हैं तो इससे अच्छा है एक महीने से खोई हुई अपनी जुराब ढूंढ लीजिए। कम से कम उस काम में कुछ सार्थकता तो है। इस तरह दिखावे की टिप्पणियां करते हुए सोशल कमेंट्री करने का क्या मतलब है। आप कह रहे हैं कि नहीं देखिए कश्मीरी कितने अच्छे होते हैं, कुछ लोगों ने हादसे के बाद टूरिस्टों की मदद की। तो आपको क्या लगता है कि इतने बड़े हादसे के बाद किसी की मदद करना महान काम है? उसे गोली खाए आदमी को दो थप्पड़ और मारने चाहिए थे? आप कह रहे हैं कि फलां अस्पताल में डॉक्टर ने मरीजों का इलाज किया, कितने लोगों ने कैंडल मार्च निकाला, कितने लोग अफसोस ज़ाहिर कर रहे हैं, देखिए ये लोग कितने भले लोग हैं।

मैं आपकी सारी बातें ठीक मान लेता हूं। लेकिन फिर मैं पूछता हूं कि जो लोग आज एक हमले के बाद भारतीयों से अपील कर रहे हैं कि अपने कश्मीर के दौरे रद्द मत कीजिए। हम खुद आपकी हिफाज़त करेंगे। यही लोग इतने सालों में कश्मीरी पंडितों को ये भरोसा क्यों नहीं दे पाए? आपने पिछले सालों में कितनी ऐसी रैलियां कश्मीर में देखी जिसमें लोग कश्मीरी पंडितों से ये अपील कर रहे हैं कि आप लोग वापिस आ जाइए। हम भरोसा दिलाते हैं कि आपके साथ ऐसा कुछ नहीं होगा। कश्मीरी पंड़ितों को तो उनके घर से निकाले आज 36 साल हो गए। इन सालों में उन्हें वापिस लाने की ऐसी कितनी गंभीर कोशिशें की गई? आप ये लोग कैंडल मार्च निकाल रहे हैं। अच्छी बात है। लेकिन मुझे खुशी होती अगर ऐसा ही एक रैली उन छह मज़दूरों के कत्ल के बाद भी निकाली जाती जो बेचारे पिछले साल अक्टूबर में आतंकियों के हाथ मारे गए थे। वो बेचारे तो वहां सुरंग बनाने का काम करने आए थे। आज बहुत सारे लोगों को कश्मीर के काम-धंधे छिनने का अफसोस है, क्या किसी ने तब उन 6 मज़दूरों के बारे में सोचा था कि ये लोग अपने घर से हज़ारों किलोमीटर दूर मज़दूरी करने आए थे ताकि इनके बच्चों का पेट भर पाएं? उनसे तो उनका रोज़गार भी छीना गया और उनकी ज़िंदगी भी छीन ली।

वहां भी वो कोई बिज़नेस करके लोकल लोगों से पैसा नहीं कमा रहे थे। वो वहां सुरंग खोदने का काम कर रहे थे। वो सुरंग जो कश्मीरियों के लिए विकास के रास्ते खोलने वाली थी। मगर फिर भी उन्हें कत्ल कर दिया गया। क्यों उनके लिए किसी का ऐसे ही खून खौला?

इसी तरह 5 अक्टूबर 2021 को श्रीनगर के प्रसिद्ध फार्मासिस्ट माखनलाल बिंद्रू की उनकी दुकान में घुसकर हत्या कर दी गई। बिंद्रू श्रीनगर में एक जाना-माना नाम थे। वो उस वक्त भी कश्मीर छोड़कर नहीं गए थे जब 5 लाख पंडितों को रातों-रात जान बचाकर कश्मीर से जाना पड़ा था। उसी दिन पानी पुरी बेचने वाले वीरेंद्र पासवान को भी गोली मार दी गई। उसी साल 7 अक्टूबर को सतिंदर कौर नाम की एक प्रिंसिपल की उनके स्कूल में हत्या कर दी गई। फिर 16 अक्टूबर को एक रेहड़ी वाले अरविंद कुमार साह की भी हत्या कर दी गई। इसी तरह 2022 में रेवेन्यू डिपार्टमेंट में काम करने वाले राहुल भट्ट की हत्या की गई। फिर रजनी बाला नाम की स्कूल टीचर को मारा और फिर कुलगाम में बैंक मैनेजर की पोस्ट पर काम कर रहे विजय कुमार का भी मर्डर कर दिया गया।

मतलब बाहर से आया एक दिहाड़ी मज़दूर हो या सालों साल से कश्मीर में रहने वाला कश्मीरी पंडित या सिख — ये कश्मीर किसी को भरोसा नहीं दे पाया कि वो वहां सुरक्षित है। इन लोगों की मौत पर पूरे कश्मीर में वैसा कोई विरोध नहीं देखा गया जैसा आज देखा जा रहा है। मैं गली-मोहल्ले में दस लोगों के हाथ में मोमबत्ती लेकर विरोध करने को विरोध नहीं मानता। विरोध वो होता जो हर जगह दिखाई देता है। सुनाई देता है। विरोध वो होता है जो बुरहान वानी की मौत के वक्त हुआ था। बुरा मत मानिएगा, इस सबसे क्या मतलब निकलता है… इस सबसे यही मतलब निकलता है कि कश्मीर सिर्फ वहां रहने वाले कश्मीरी मुसलमानों को है। इसके अलावा वहां रहकर काम करने का हक किसी को नहीं। न एक बाहरी मज़दूर को, न कश्मीरी पंडितों को। आज हम कुछ लोगों के मरने पर इसलिए इतना विरोध कर रहे हैं क्योंकि ये लोग यहां नहीं आएंगे तो फिर हमारा रोज़गार छिन जाएगा। उनसे मिलने वाला पैसा हमें बंद हो जाएगा। मतलब हमें भारतीय पर्यटक से मिलने वाला पैसा तो चाहिए, मगर कोई भारतीय खुद यहां आकर रहने लगे ये हमें कबूल नहीं।

कोई भी इंसान या समाज क्या सोचता है, ये उसकी बातों से साबित नहीं होता। ये उसके व्यवहार से साबित होता है। और आपका व्यवहार हर उस गैर-कश्मीरी मुसलमान के लिए क्या है जो आपके यहां टूरिस्ट नहीं है या आपको पैसा नहीं दे रहा, वो तो इन दर्जनों उदाहरणों से साफ हो ही रहा है।

अब कुछ लोगों के साथ समस्या क्या है? उन लोगों को लगता है कि ऐसे निष्कर्ष से आप एक कम्यूनिटी को साम्प्रदायिक प्रोजेक्ट कर रहे हैं। ये भी हद दर्जे की मूर्खता है। कोई भी निष्कर्ष तथ्य और पैटर्न पर निकाला जाता है। अगर किसी भी चीज़ को स्थापित करने के लिए तथ्य भी हैं और हालिया इतिहास में उसका एक लंबा पैटर्न भी है तो हम कौन होते हैं कुछ साबित करने वाले, जो साबित करना है वो तो तथ्य और पैटर्न कर रहे हैं।

समस्या की जड़ और धार्मिक सुधार

लेकिन किसी को दोष देना इस पोस्ट का मतलब था ही नहीं। बात इससे भी एक कदम आगे की है। मेरा मानना है कि दुनिया के हर इंसान एक समान संभावनाएं लिए आता है। लेकिन उसके अंदर छिपी उदारता, क्रिएटिविटी तब सामने आएगी जब वो अपने स्तर पर सोचने-समझने के लिए स्वतंत्र होगा। लेकिन अगर हमारी सोच हमारे खुद के चुनाव से नहीं, हमारे धार्मिक विश्वासों से तय होगी तो फिर हमारे धार्मिक विश्वासों की सीमाएं, हमारी भी सीमाएं बन जाएंगी। और समस्या हर religion के साथ रही है। लेकिन सवाल ये है कि उसने इस दबाव से निकलने की कितनी ईमानदार कोशिश की।

आज सबसे आधुनिक माने जाने वाले ईसाई धर्म के साथ क्या ये समस्या नहीं थी? मैं कहूंगा, जितनी रूढ़िवादिता उनके साथ थी उतनी तो कहीं नहीं थी। चर्च का आम आदमी की सोच और जीवन पर जितना कंट्रोल था उतना कहीं नहीं था। क्या आपने जॉन विक्लिफ का नाम सुना है? अगर नहीं सुना तो उनका किस्सा आपकी रूह हिला देगा। जॉन विक्लिफ इंग्लैंड के एक दार्शनिक और धर्म सुधारक थे। उन्होंने चर्च के भ्रष्टाचार के खिलाफ काफी कुछ लिखा। यहां तक कि पोप को भी नहीं बख्शा था। 1384 में उनकी नैचुरल डेथ हो गई। लेकिन चर्च उनकी बातों से इतना नाराज़ था कि उनकी मौत के करीब 53 साल बाद, 1428 में, चर्च के आदेश पर उनकी कब्र से उनके शव को निकाला गया, उनकी हड्डियाँ जलाई गईं और राख को एक नदी (River Swift) में फेंक दिया गया — ताकि उसका कोई निशान ही न रहे।

गैलीलियो ने जब कोपरनिकस की बात दोहराते हुए कहा था कि धरती नहीं, सूरज इस ब्रह्मांड का केंद्र है और पृथ्वी उसके चारों तरफ घूमती है, तो चर्च ने उन्हें काफिर घोषित कर दिया। मगर इसी समाज में फिर पुनर्जागरण भी आया। जब दाते, पेट्रार्क, बोच्चियो जैसे विचारक भी हुए। उन्होंने अपने विचारों से चर्च को सीधी चुनौती भी दी। धीरे-धीरे चर्च का असर कम भी हुआ। और बाद में यही चर्च थी जिसने 80 के दशक में गैलीलियो की मौत के इतने सालों बाद उससे सार्वजनिक माफी भी मांगी।

हिंदू धर्म में तो पूरा चार्वाक दर्शन ही नास्तिकता पर आधारित है। बेशक आज बहुत सारे हिंदू आज वैसे ही धार्मिक कट्टर हो गए हैं जैसी कट्टरता का वो खुद विरोध करते हैं। लेकिन ये भी सच है कि सनातन धर्म में नास्तिकता की बात तब की गई जब कोई और धर्म इस बारे में सोच नहीं सकता था। फिर दयानंद सरस्वती भी हुए। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश भी लिखी। खुद इस्लाम में सातवीं से दसवीं शताब्दी का दौर इस्लाम में स्वर्ण युग माना जाता है। जब बगदाद से लेकर दमिश्क, काहिरा और स्पेन के कॉर्डोबा तक रचनात्मकता और खुलेपन का झंडा बुलंद था। अगर मेरी जानकारी सही है तो ये अब्बासी खिलाफत का दौर था।

लेकिन आयरनी देखिए, जिस वक्त ईसाईयत में फ्री थिंकर्स असर दिखाने लगे, उसी वक्त आधुनिक इस्लाम ने एक अलग टर्न ले लिया। पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हसन निसार कहते हैं कि इस्लामी तारीख में सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट वो था जब इस्लामी शासकों ने प्रिंटिंग प्रेस को मना कर दिया। बाद के सालों में हर आधुनिक विचार से मुंह मोड़ा। और फिर 70 और अस्सी के दशक में जब इस्लामिक क्रांति हुई, ईरान में अयातुल्ला खोमेनी जैसों का राज हुआ, सऊदी के पास तेल का पैसा आया, उस पैसे से उसने पूरी दुनिया में वहाबियत का जो प्रचार किया — उसके क्या नतीजे हुए वो सबके सामने हैं।

आज पाकिस्तान से अफगानिस्तान में जो रहा है, सीरिया में जो हो रहा है, नाइजीरिया से लेकर बुर्किना फासो, सोमालिया से लेकर लीबिया, चाड जैसे अफ्रीकी देशों और 80 के दशक में जो कश्मीर में शुरू हुआ वो उसी विचार का नतीजा है। वो विचार क्या है उस पर अलग से काफी कुछ लिखा जा सकता है। इस विचार ने किसी भी इंसान के अंदर की नैसर्गिक उदारता और उसकी रचनात्मकता को ख़त्म कर दिया है। ज़रूरत है उस विचार के असर को समझने की। उस असर की नकारात्मकता को समझने की। और उन लोगों की बात सुनने की जो आपकी भलाई के लिए कुछ कह रहे हैं। न कि उन लोगों का वो हश्र किया जाए तो सलमान रशदी का हुआ, तसलीमा नसरीन का हुआ या उन जैसे हज़ारों लोगों।

क्योंकि एक बार अगर कोई समाज अलग विचार रखने वालों से इस सख्ती से निपटता है तो वो किसी भी नए विचार के रास्ते बंद कर देती है। फिर उस मज़हब में जो सो कोल्ड मोडरेट भी होते हैं वो भी ज़बान खोलने की हिम्मत नहीं करते। और धीरे धीरे पूरा समाज मान्यता और लोकप्रियता के लिए उस कट्टरपंथी विचार का चीयर बॉय और चीयर गर्ल बना जाता है। पाकिस्तान इसका बेहतरीन उदाहरण है। जहां का कप्तान तक ये कहता है कि उसके करियर की बड़ी सफलता ये है कि उसने फलां दौरे में उस विदेशी खिलाड़ी को दीन मे शामिल करवा लिया। जहां के खिलाड़ी तबलीग जैसा बिहेव करते हैं। जहां का आर्मी चीफ तक ये कहता है कि हम धर्म से अलग हैं। बिना ये सोचे कि उस धर्म के खुद उस मुल्क में चालीस लाख लोग रहते हैं।

अल्बर्ट कामू ने सालों पहले एक बात कही थी। वैसी ही बात आइंस्टीन ने भी कही। दोनों का कहना था कि वो समाज का उतना महत्व नहीं देते। उनका मानना है कि किसी भी समाज में जो रचनात्मक लोग होते हैं, वो जो नए विचार लेकर आते हैं, सोसाइटी उससे आगे बढ़ती है। पश्चिम ने अपने विचारकों को वो स्पेस दिया। यही लोग वहां फिर औद्योगिक क्रांति लेकर आए। इन्हीं लोगों ने विज्ञान को नया भगवान बना दिया। और उस विज्ञान के दम पर वो समाज कहां पहुंच गया। वो सबके सामने हैं।

जो पाकिस्तान आज भारत को अपने जिस F-16 विमानों की धौंस दिखाता है, वो उसी अमेरिका से खरीदे हैं जिन्हें ज़्यादातर कट्टरपंथी पाकिस्तानी सबसे बड़ा शैतान मानते हैं।आप दूसरी आयरनी देखिए। पाकिस्तान बनते ही वहां कम्यूनिस्ट पार्टी को बैन कर दिया और कम्युनिस्ट चीन में इस्लाम मानने वालों के साथ क्या हो रहा है ये सबके सामने हैं। लेकिन यही चीन आज पाकिस्तान का सबसे भरोसेमंद दोस्त है। मतलब जिस विचारधारा को पाकिस्तान अपने देश में Exist करने लायक नहीं समझता उसी विचारधारा का साथ लेकर पाकिस्तान भारत को दिखाना चाहता है कि उसकी विचारधारा कितनी सुपीरियर है! है न कितनी मज़ेदार बात!

लेकिन कट्टरपंथी कभी इन बातों के बारे में नहीं सोचता। क्योंकि अपने व्यवहार का ये द्वंद उसे अपनी ही नज़रों में शर्मिंदा कर देगा। ये उसी के खोखले विचारों की पोल खोल देगा। उसके विचारों की नपुंसकता सामने ला देगा। इसलिए वो डिनायल मोड में जीता रहता है। उसी तरह जैसे पहलगाम हमले की असल वजह पर मिट्टी डालने वाले जी रहे हैं। मैं हमेशा कहता हूं कि सच की कोई मजबूरी नहीं होती कि वो सबको खुश करे। सच को कोई चुनाव नहीं लड़ने होते। सच को अपनी इंस्टा स्टोरी के लिए कोई व्यूज़ नहीं चाहिए होते। अगर सच आपको कड़वा लग रहा है, तो आपके स्वाद के लिए उस पर चाशनी लगाकर उसे नहीं परोसा जा सकता। इसे चखिए। इसे चखने की आदत डालिए। धीरे-धीरे आपकी स्वाद कलिकाएं, यानी taste buds अपने-आप डेवलप हो जाएँगी। भरोसा रखिए…सच से मुंह मत मोड़िए।

By anandkumar

आनंद ने कंप्यूटर साइंस में डिग्री हासिल की है और मास्टर स्तर पर मार्केटिंग और मीडिया मैनेजमेंट की पढ़ाई की है। उन्होंने बाजार और सामाजिक अनुसंधान में एक दशक से अधिक समय तक काम किया। दोनों काम के दायित्वों के कारण और व्यक्तिगत रूचि के लिए भी, उन्होंने पूरे भारत में यात्राएं की हैं। वर्तमान में, वह भारत के 500+ में घूमने, अथवा काम के सिलसिले में जा चुके हैं। पिछले कुछ वर्षों से, वह पटना, बिहार में स्थित है, और इन दिनों संस्कृत विषय से स्नातक (शास्त्री) की पढ़ाई पूरी कर रहें है। एक सामग्री लेखक के रूप में, उनके पास OpIndia, IChowk, और कई अन्य वेबसाइटों और ब्लॉगों पर कई लेख हैं। भगवद् गीता पर उनकी पहली पुस्तक "गीतायन" अमेज़न पर बेस्ट सेलर रह चुकी है।

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